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________________ तृतीयः सर्गः १. अथ स्थितप्रज्ञशिरोमणिः स, स्वचिन्तितार्थामृतसिंधुमग्नः । विचारयामास विचारदक्षः, कथं विलम्बः शुभसाध्यसिद्धौ ।। स्थितप्रज्ञ शिरोमणी, अपने चिन्तितार्थ अर्थात् साध्य के अमृत सिन्धु में निमग्न, विचारदक्ष भिक्षु ने सोचा-अब शुभ साध्य की सिद्धि में मुझे विलम्ब क्यों करना चाहिए ? २. कृता प्रतिज्ञा युगपद् युगाभ्यां, मुनित्वलक्ष्मीललितौ न यावत् । तपः सदैकान्तरितं च तावत्, समाश्रयन्तौ भवितास्व एव ।। 'जब तक हमें दीक्षा नहीं आएगी, तब तक हम अनवरत एकान्तर तप करते रहेंगे।' उन दोनों ने (पति-पत्नी ने) एक साथ ऐसी कठोर प्रतिज्ञा की। ३. गदैरचिन्त्यैर्व्यथितं शरीरं, निजाङ्गनायाः सहसा समीक्ष्य । अनित्यभावाभितरङ्गितोऽपि, बभूव धीरोऽपि तदाऽऽश्वधीरः । उन्हीं दिनों अकस्मात् भिक्षु की पत्नी को रोग ने चारों ओर से घेर लिया । अपनी पत्नी की सहसा व्याधिग्रस्त अवस्था को देख, अनित्य भावना से भावित होते हुए भी धीर भिक्षु तत्काल अधीर हो उठे। ४. अतीवचित्रं किमिदं शरीरं, नवनवैः संस्करणैः प्रयुष्यत् । क्षणेन पश्यत्क्षयमेवमेति, निरङ्कुशं हा ! किमु तत्र रागः ॥ ___ यह शरीर अतीव विचित्र है। नित्य नये-नये संस्कारों से पोषित होता हुआ भी यह देखते-देखते ही नष्ट हो जाता है। ऐसे इस निरंकुश देह पर कैसा मोह ? ५. भिषग्वराणां प्रतिकारभार, रिरक्षिषाभिर्बहुरक्ष्यमाणाम् । _ निनाय तां संयमनी पुरीं च, स धर्मराजोप्यह ! चित्रमेतत् ॥ १. तदा+आशु+अधीरः । २. संयमनी-यमपुरी (पुरी पुनः संयमनी-अभि २।१००)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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