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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् 'आर्य ! जिस पुनीत रात्री में यह बालक मेरे गर्भ में आया, उसी रात मैंने अत्यंत पुष्ट और बलिष्ठ, अपनी सघन जटा को फैलाने वाले, गोल कुंडल की भांति अपनी पूंछ को शिर पर ऊंची रखने वाले, अपनी दहाड़ से दिग्गज हाथियों को भी स्तंभित करने वाले, अपनी पीली-पीली आंखों की चमक-दमक से विद्युत् का भी तिरस्कार करने वाले, सूर्य-किरणों के समान निर्भीकता से गति करने वाले, निरपराधी जीवों को नहीं सताने वाले, अपनी अद्वितीय शारीरिक प्रभा को चारों ओर प्रसारित करने वाले, अनुपम प्रभुता को धारण करते हुए नृसिंह की सूचना देने वाले विशालकाय केसरीसिंह को आकाश से उतरकर मेरे मुख-विवर में प्रविष्ट होते देखा ।'
५९. अमीभिरुच्चस्तमलक्षणर्यस्तथाविधोऽयं निरणायि भावी। __ स्वयं बुभुक्षुर्भविता यदग्ने, दिगन्तदुभिक्ष उदात्तभिक्षुः ॥
'इन श्रेष्ठतम लक्षणों से मैं इस निर्णय तक पहुंच पायी हूं कि भविष्य में मेरा यह पुत्र राजा बनेगा और दिगन्त तक फैलने वाला दुर्भिक्ष भी इसके समक्ष स्वयं भिखमंगा बन जायेगा अर्थात् इसके सौभाग्य के सामने दुष्काल तो टिक भी नहीं पाएगा।' ६०. यदास्यपीयूषविवर्षणेन, सुधामयी या वसुधा भवित्री।
परम्परायातदरिद्रताभिर्दवीयसी' शीघ्रमनाधमर्णी ॥
६१. अमुष्य पञ्चास्यपराक्रमस्याभिधानमात्रादपशात्रवीयम् ।
पुनः प्रभावात् त्रिदिवोपमाना, ततः कथं भिक्षुममुं करोमि ॥ (युग्मम)
_ 'इसके मुखचन्द्र से होने वाली अमृत वर्षा से सारी पृथ्वी सुधासिक्त हो जायेगी । वह परम्परा से चले आ रहे दारिद्र्य से दूर हो जाएगी तथा शीघ्र ही उऋण बन जायेगी।
आचार्यवर ! सिंह के समान इस पराक्रमी पुत्र के नाम मात्र से ही यह पृथ्वी शत्रुओं से विमुक्त और स्वर्गोपम बन जायेगी। इसलिए मैं इसको भिक्षु कैसे बनने दूं ।' ६२. ततः स तत्स्वप्नमवेत्य हृष्टो, घनालिघोषादिव नीलकण्ठः ।
पुनः प्रतिध्वान वितानतुल्यं, स्वरेण तारेण समुल्ललाप ॥ १. दवीयस्-अत्यंत दूर (अतिदूरे दविष्ठं दवीयस्-अभि० ६८९) २. अधमर्ण:-ऋणी (अधमर्णो ग्राहकः स्याद्-अभि० ३।५४६) ३. अपशात्रवीयं-शत्रुओं से विमुक्त । ४. प्रतिध्वान:-प्रतिध्वनि ।