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________________ जयोदय का सर्गानुसारी कथानक प्रथम सर्ग - प्राचीन काल में हस्तिनापुर में जयकुमार नाम का एक राजा राज्य करता था। वह भारत वर्ष के आदि सम्राट भरत चक्रवर्ती का प्रधान सेनापति था। वह कीर्तिमान, विद्वान, बुद्धिमान, सौन्दर्यवान् एवं अत्यन्त प्रतापी राजा था। एक दिन राजा जयकुमार वन क्रीड़ा करने के लिए गये, वहाँ पर किसी तपस्वी मुनि राज के दर्शन हुए। मुनि के दर्शन पाकर वह बहुत हर्षित हुआ। उसने उनकी स्तुति की और विनम्रता पूर्वक कर्तव्य पथ प्रदर्शन हेतु निवेदन किया। द्वितीय सर्ग - मुनि राज ने जयकुमार को धर्म का माहात्म्य व गृहस्थ धर्म के कर्तव्यों का उपदेश दिया तथा उसकी उपादेयता, उपयोगिता को बतलाया। जिसे जयकुमार ने भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर आत्मसात किया। तत्पश्चात् जब वह राज्य भवन को वापिस आ रहे थे तब मार्ग में एक सर्पिणी जो मुनिराज के उपदेश को उसके साथ सुन रही थी वही सर्पिणी किसी अन्य सर्प के साथ रमण कर रही थी। यह देखकर जयकुमार ने उस सर्पिणी को पीटा। देखा देखी अन्य लोगों ने भी उसे धिक्कारा तथा प्रहारों से मार डाला। तत्पश्चात् वह सर्पिणी मर कर व्यन्तरी हुई और उसका पति सर्प पहले मर कर व्यन्तर देव हुआ था। उसने अपने पति के पास जाकर जयकुमार के बारे में भला बुरा कहा। उस सर्प ने बिना विचार किये ही अपनी पत्नी के वचनों पर विश्वास कर लिया तथा जयकुमार को मारने के लिये आया तब उसने वहाँ देखा कि जयकुमार उस सर्पिणी के दुश्चरित्र का सारा वृत्तान्त अपनी स्त्रियों को सुना रहा है तथा स्त्रियों के कौटिल्य की निन्दा कर रहा है। तब सर्प ने घटना की वास्तविकता जानने के बाद उसने अपनी स्त्री की निन्दा की और सारा वृतान्त जयकुमार को बताकर उनका सेवक बन गया तथा आज्ञा पाकर अपने स्थान को चला गया। तृतीय सर्ग - एक दिन राजा जयकुमार अपनी राज्य सभा में विराजमान थे तभी काशी नरेश अकम्पन महाराज के दूत ने राजा जयकुमार की प्रशंसा करते हुए उनकी आज्ञा से काशी नरेश का संदेश कहा कि श्रेष्ठ मनुष्यों वाली काशी नगरी के राजा अकम्पन की आज्ञा से आपके समीप उपस्थित हुआ हूँ। उस राजा के सुलोचना नाम की पुत्री है जो सुप्रभा रानी से उत्पन्न हुई है। सुलोचना अति सुन्दर और गुणों की स्वामिनी है। उसके विवाह की इच्छा से स्वयंबर समारोह का आयोजन किया है। काशी नगरी में श्री सर्वतोभद्रक नाम का श्रेष्ठ सभामण्डप बनाया गया है तथा काशी नगरी को वधू रुप में सजाया गया है। अतः सुलोचना स्वयंबर के उपलक्ष्य में आपको सादर आमन्त्रित किया (94) 9 ० 333308368688638684 288888888600000000000 4 ०००००8888888888856002006 3 4 6 66555588888858965863388888888888883333333898
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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