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गृहस्थ को धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ के बाद मोक्ष मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। इसके लिए गृहस्थ के बाद त्यागी बनना होगा। प्रत्येक गृहस्थ को उन नियमों का पालन करना चाहिए। इससे जीवन उल्लासमय, सुखमय तथा समृद्धिमय हो सकता है। साथ ही गृहस्थ को एहिक और आमुष्मिक सर्वविध ऐश्वर्य सुलभ हो सकते हैं।
मानव जीवन का उद्देश्य संसार में आकर विषयों का दास बनना नहीं बल्कि अरहंत की सच्ची भक्ति कर मोक्ष प्राप्त करना है। कवि के द्वारा चित्रित नरपति जयोदय भारतीय समाज का अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करते हैं। कवि सरस्वती जिन वाणी की स्तुति करते हैं। हे सरस्वति! तुम श्रीपति जिनेन्द्र देव का वह दर्शन कराने वाली हो, जो कि सम्यग्ज्ञान तथा धर्माचरण आदि लक्षणों से सहित है। तुम अतिशत चतुर अथवा उदार हो, ज्ञानी तथा अज्ञानी सभी जनों के द्वारा सेवनीय - उपासनीय हो तथा पुण्यशाली लोगों को अद्वितीय वर देने वाली हो।
आचार्य ज्ञानसागर जी सरस्वती की लोक प्रसिद्ध मूर्ति का वर्णन करते हैं कि सरस्वती मयूरवाहिनी है, उसके चार हाथ हैं। वह एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में माला, तीसरे हाथ में पुस्तक लिये हुए हैं तथा चौथा हाथ गोद में रखे हुए हैं। वह सरस्वती श्रेष्ठ मयूर के द्वारा बाह्यमान है, जन समूह का कल्याण करने वाली है, पाप रुपी सांप इससे दूर रहते हैं। यह सन्देह को नष्ट करने वाली है तथा अनुमान करने योग्य है।
सरस्वती जी को शरद ऋतु के समान बताया है। हे सरस्वती! तुम विद्वानों के हृदय में दीपिका रुप हों, अर्थात तुम्हारे ही आलोक में हेयोपादेय पदार्थों का ज्ञान होता है। तुम्हारे आशीर्वाद से सहित ऐसा कौन मनुष्य है जो ज्ञान से अनुमत-समर्थित न हो, अर्थात् कोई नहीं है। पृथ्वी पर मैं तुम्हारे उपकार को नहीं भूलता हूँ, कभी भी तुम्हारे उपकार को विस्मृत नहीं कर सकता। तुम्हारे विषय में स्नेहपूर्ण - प्रेमपूर्ण वृत्ति को धारण करता हूँ। अथवा यतश्च तुम दीपिकास्वरुप हो, अतः मैं उसकी तेल सहित बत्ती हूँ।
राजा जयकुमार सरस्वती जी की आराधना के पश्चात् लक्ष्मी जी की आराधना करते हैं कि वह भवनवासिनी देवी है। यह जगत की अद्वितीय माता है तथा सब प्रकार की वृद्धि करने वाली है।
__हे माता! तुम किन्हीं पुरुषों के द्वारा हीरा आदि रुप होने से उपल स्वभाव वाली मानी गई हो, और किन्हीं पुरुषों के द्वारा रत्न मोती आदि रुप होने से समुद्रजा कही जाती हो, परन्तु हम बुद्धिरुपी नौका के द्वारा जानते है कि तुम प्राणिमात्र के हृदय में वास, करती हो भाव यह है कि सभी लोक आपको हृदय से चाहते है। लक्ष्मी माता नामोच्चारण मात्र से आप त्रिजगत् का हित करने वाली हूँ। जिसके नाम के अक्षर कल्याण, महत्त्व और लाभ इन तीनों शब्दों में निहित है, अर्थात् जिसका कमला नाम है तथा जो धर्म, अर्थ, काम रुप त्रिवर्ग के धारक गृहस्थों के द्वारा इस समय भी सेवनीय है, ऐसी ही देवि! आप मेरे हृदय में स्थिर रहे। 1. जयोदय 12/108 2. वही, 19/23 3.वही, 19/24, 4.वही, 19/30, 5.वही, 19/34
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