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से सहित है और समुद्र जडाशय जल के संग्रह रुप है इसी प्रकार मेरू पर्वत तुङग - ऊँचा होकर भी आपके तुल्य नहीं है क्योंकि आप. तुडग उदार प्रकृति होने के साथ कोमल हृदय में कोमल है, परन्तु मेरु पर्वत हृदय में कोमल न होकर भीतर से कठोर है।
ऋषभदेव आपके उदय होने से पाप, दु:ख का नाश हो जाता है। आप नित्य नया रूप धारण करने वाले अद्वितीय सूर्य है।
हे भगवान् ! आप वृषभध्वज हैं - वृषभ चिन्ह वाली ध्वजा से सहित है, दिशा रूप वस्त्रों से सहित अर्थात् नग्नमुद्रा के धारक है संसार का नाश करने वाले हैं। प्राणिमात्र का हित करने वाले हैं। सभी देवों में प्रभुत्व सम्पन्न देव हैं। इस प्रकार महादेव के साथ नाम सादृश्य होने पर भी मेरा जिन के लिए नमस्कार है। किन्तु मृग धर्म के धारण करने वाले महादेव को मेरा नमस्कार नहीं है। इससे कवि की धार्मिक अनुदारता और संकीर्णता सूचित होती है। जिन भगवान् सबसे श्रेष्ठ होने के कारण देवाधिदेव कहलाते हैं। हे भगवान् ! आप मोह रहित है, राग रहित हैं और भौतिक लक्ष्मी रहित है।
हे समस्त पदार्थो के ज्ञाता जिनेन्द्र! भक्त जन अन्य गुणहीन देवों को छोड़कर इच्छारहित आपकी आराधना कर अपना साध्य मनोरथ सिद्ध कर लेते हैं क्योंकि चिन्तामणि रत्न को प्राप्त कर क्या मनुष्य कृतार्थ - कृतकृत्य नहीं होता। अर्थात् अवश्य होता है।
हे रागादि दोष तथा ज्ञनावरणादि कर्मों से रहित देव! भक्ति के वशीभूत चतुर मनुष्य आपका ही आश्रय लेते हैं।
जिन भगवान् ही मनुष्य का उद्धार करने वाले हैं। इनके दर्शन मात्र से सम्पूर्ण रोग नष्ट हो जाते हैं। इनके गुणों को जानकर ही काव्य के नायक ने जैनश्वरी दीक्षा धारण करता है। वह जानता है। मुक्ति का यही एक मात्र साधन है।
आचार्य ज्ञान सागरजी के आराध्य देव जिन भगवान् ही है। उनके प्रत्येक ग्रन्थ का आरम्भ जिनदेव के स्तवन से हुआ है। काव्य का नायक भी जिनेन्द्र देव का ही भक्त है। कवि की जिनेन्द्र भगवान् के प्रति पूर्ण भक्ति, निष्ठा तथा आस्था है।
कवि का सन्देश - आचार्य ज्ञान सागर जी अपने काव्य जयोदय से यह सन्देश देना चाहते हैं कि मानव को सदाचार की शक्ति से उन्मार्ग को जीतना चाहिए। मनुष्य को सदाचार का पालन अवश्य करना चाहिए - सदाचारो हि परमो धर्मः। 1. जयोदय महाकाव्य (उत्तरांक्ष), 19/19 2. वहीं, 19/22 3. वही, 24/90 4. वही, 24/94
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