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________________ अरहंत देव ही कल्याणकारी है। कवि कहते हैं कि अरहंत भगवान् सब मंगलों में उत्तम मंगल है और शरणागत वत्सल हैं, देवताओं से भी श्रेष्ठ देव हैं। उनके समान शरीर धारियों का हित करने वाला दूसरा कोई नहीं है।' जिन भगवान के विंब की प्रतिष्ठा भी हम संसारी आत्माओं के लिए शांतिदायक होती है। जिन भागवान् की पूजा विवाह आदि के प्रारम्भ में भी की जाती है तो वह विवाह पूजा कहलाती है। जिन भगवान का नाम लेकर ही स्वास्तिक लिखें किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले जिनेन्द्र का नाम लेकर इष्ट देव का स्मरण करे तो वह निश्चय ही धर्म की सिद्धि प्राप्त करेगा। तीनों सन्ध्याओं के समय जिन भगवान का स्मरण करना चाहिए जिस प्रकार सूर्य का आतप किसान के अन्न को पकाता है ठीक उसी प्रकार भगवान् का चिन्तन इष्ट सिद्धि करने वाला माना जाता है। अरहंत भगवान् विघ्न हर्ता है। उनके नामोच्चारण से ही सारी विघ्न बाधाओं का नाश हो जाता है। गृहस्थ को चाहिए कि वह मन से सदैव जिन भगवान् का. स्मरण करे, पर्व के दिनों में तो उनकी विशेष पूजा, सेवा भक्ति करे। क्योंकि जिन भगवान् की भक्ति मुक्ति देने वाली हुआ करती है। जयकुमार कहता है कि हे जिन सूर्य ! हे पापहारक संसार का पालन करने वाले, आपके ऊपर विश्वास रखने वाले को पृथ्वी पर सुख-शान्ति, सम्पत्ति तथा आनन्द प्राप्त होता है। वह व्यक्ति निश्चिंत हो जाता है फिर उसके पास अहंभाव कैसे रह सकता है ? विघ्न तो हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है। जैन धर्म की कृपा से लौकिक व पारलौकिक सुख मिलता है। जयकुमार व सुलोचना ने विवाह के पश्चात् ऐसी कामना की कि अरहंत भगवान के स्तवन से उत्तरोत्तर शान्ति की वृद्धि हो, पापों का नाश हो, पुण्यमय बुद्धि का प्रकाश हो और दयायुक्त हृदय में जैन धर्म बना रहे। इस प्रकार से उन्होंने अर्हन्त आदि पंचपरमेष्ठी भगवानों के चरणों में श्रद्धा भक्ति प्रकट की। राजा जयकुमार ऋषभदेव के अद्वितीय गुणों की प्रशंसा करता है कि हे नाथ! भास्कर देदीप्यमान होने पर भी भानु-सूर्य आपके तुल्य नहीं है क्योंकि आप सर्वसग हितकारी है - कोमल प्रकृति वाले हैं और भानु खर - तीक्ष्ण प्रकृति वाला है। आप कलडक पाप से दूर हैं अतः चन्द्रमा भी आपके तुल्य नहीं है, क्योंकि आप गम्भीर धैर्यवान होने के साथ अजडाशय प्रबुद्ध आशय 1. जयोदय महाकाव्य, 2/27 2. वही, 2/343.वही, 2/35 4. वही, 2/35 5. वही, 2/39 6.वही, 10/95 7. वही, 12/102
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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