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एक स्त्री के रहने पर भी दारा इस प्रकार बहु संख्या में प्रयुक्त होता है, उसी प्रकार सत् भी एक होकर भी अनेकरुपता को प्राप्त होता है, वैयाकरणों ने जिस प्रकार रामश्च, रामश्च रामश्चेति रामा: इस द्वन्द्व समास में अनेक राम शब्दों को एक राम शब्द में समाविष्ट कर अनेक में एकत्व को प्रकट किया है, उसी प्रकार पर्यायगत अनेकरुपता को गोणकर द्रव्य में भी आचार्यों ने एकरुपता स्वीकृत की है। तात्पर्य यह है कि सत् एक भी है और अनेक भी है। द्रव्यार्थिक नय सामान्य की विवक्षा में द्रव्य एक है और पर्यायार्थिक नय की विवक्षा में अनेक है।
वस्तु की भावाभावात्मकता का वर्णन इस श्लोक में मिलता है -
भावैकतायामखिलानुव्रत्ति भवेदभावे थ कुतः प्रवृत्तिः। यतः पदार्थी न घटं प्रयाति हे नाथ! तत्तवं तदभानुपति।।
वस्तु की नित्यनित्यात्मता', अद्वैत मानने का निषेध, ब्रह्म से सृष्टि तथा भूतचतुष्टय मान्यता का निराकरण', निश्चय नय और व्यवहार नय आदि का परिचय अपने जयोदय महाकाव्य में दिया है। सप्तभंग जैसे गहन विषय को भी सरस उदाहरण से हृदयंगम कराया है।
तुलान्तवत्तद् द्वयमस्तु वस्तु प्रतिष्ठित विज्ञहृदीह वस्तुम्। न पश्चिमांशेन विना बिभर्ति समग्रमंश खलु यास्ति भितिः।।।
इस प्रकार के वर्णन से कवि के जैन दर्शन के सिद्धान्तों के प्रति अनुराग का सहज आभास हो जाता है। इस सब दृष्टान्तों से आचार्य ज्ञान सागरजी के गम्भीर दार्शनिक ज्ञान की सहज अभिव्यक्ति हो जाती है। जयोदय महाकाव्य में वर्णित दार्शनिक मीमांसा तत्त्वजिज्ञासुओं को सद्बोध एवं सद् शिक्षा में अग्रसर करने में पूर्णतया सक्षम है।
आचार्य ज्ञानसागर के उपास्य देव - आचार्य ज्ञानसागर जी जैन भक्ति निष्ट है। इनके उपास्य देवता जिनेन्द्र भगवान हैं। उनको ही यह मुक्ति - भुक्ति दाता मानते हैं। श्री के द्वारा जो आश्रित है, अच्छी बुद्धि के धारक हैं, आत्मतल्लीनता के द्वारा जो सर्वज्ञ बन चुके हैं, इसलिए मुक्ति के भी स्वामी है, ऐसे जिन भगवान् को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके अपने आपके कल्याण के लिए अपनी शक्ति के अनुसार में जयोदय महाकाव्य लिख रहा हूँ।
भगवान् जिन के चरणानुयोग का यह उपदेश है कि मनुष्य दिगम्बर बने, उपवास करे, और चित्त में आत्मचिन्तन करते हुए भोगों का त्याग करे तभी संसार से मुक्त हो सकता है।' 1. जयोदय महाकाव्य, 26/85 2. वही, 26/87 3.वही, 26/89 4. वही, 26/86
5. वही, 26/93,94 6.वही, 2/3 7. वही, 26/77 8. वही, 1/1
9. वही, 1/22