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वैशषिक दर्शन और न्याय दर्शन का उदाहरण दृष्टव्य है - येषां मतेनाथ गुण: स्वधाम्ना सम्बध्यते वे समवायनाम्ना। तेषां तदेक्यात्किल संकृतिर्वाऽ नवस्थितिः पक्षपरिच्युतिर्वा ।
जिनके मत में गुण गुणी के साथ समवाय सम्बन्ध से सम्बन्ध को प्राप्त होता है, उनके मत में समवाय के एक होने के कारण संकर, अनवस्थिति और प्रतिज्ञाहानिरुप दोष आते हैं : वस्तु की भेदाभेदात्मकता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि -
अभेदभेदात्मकमर्थमर्हस्तवोदितं संकलयन समर्हम्। शक्नोमि पत्नीसुतवन्न वक्तुं किलेह खंड्गेन नभो विभक्तुम्।।
हे अर्हन्! आपके द्वारा कथित भेदाभेदात्मक पदार्थ को जब मैं पूर्णरूप से ग्रहण करता हुआ कहना चाहता हूँ तब पत्नि के पुत्र के समान कह नहीं सकता हूँ, तात्पर्य यह है कि पुरुष की पत्नी को उसका पुत्र माता कहता है और पति पत्नी कहता है। उसे सर्वथा न मातारुप कहा जा सकता है और न पत्नी रुप, क्योंकि उसमें माता और पत्नी का व्यवहार पुत्र और पति की अपेक्षा से है, इसी तरह किसी वस्तु को भेद और अभेद दोनों रुप कहा जाता है। प्रदेश भेद न होने के कारण वस्तु अपने गुणों से अभेदरुप है। और संज्ञा, लक्षण आदि की अपेक्षा भेद रुप है। दो रूप वस्तु को एकान्त रुप से एक रुप कहना तलवार से आकाश को खण्डित करने के समान अशक्य है। एकानेकात्मता का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि सत् सर्वथा एक नहीं क्योंकि वह अनेक गुणों का संग्रह रुप है। घृत, शक्कर और आटा आदि को मिलाकर लड्ड बनाया जाता है अतः वह देखने में एक प्रतीत होता है। पर जिन पदार्थों के संग्रह रुप से बना है उनकी और दृष्टि देने से वह अनेक रुप हो जाता है। परन्तु जीवादि द्रव्य रुप सत् अनेक गुणों के संग्रह के रुप होने से लड्ड की तरह अनेक रुपता को प्राप्त नहीं होता क्योंकि घृत, शक्करा आदि पदार्थ अपना पृथक - पृथक अस्तित्व लिये हुए लड्डु में सगृहीत होकर एक रुप दिखते है। इस प्रकार जीवादि द्रव्यों में रहने वाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण अपनी - अपनी पृथक सत्ता नहीं रखते और न कभी जीवादि द्रव्यों से पृथक थे। इसलिए सत् में जो अनेकत्व है वह उसमें अनेक गुणों के साथ तादात्म्य होने से है, संग्रहरुप होने से नहीं। अनेक गुणों की और दृष्टि देने से जीवादि सत् अनेक रुप जान पड़ते हैं परन्तु उन सबमें प्रदेश भेद न होने से परमार्थ से एकरुपात्मक है।
यह भी विचार किया जाता है कि जिस प्रकार स्त्री वाची दार शब्द 1. जयोदय महाकाव्य, 26/82 2. वही, 26/78 3. वही, 26/84
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