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कवि ने अपने जयोदय महाकाव्य में जयकुमार व सुलोचना को उत्तम सुख प्राप्त करने के पश्चात् मोक्ष की और अग्रसर किया है।
मनुष्य को पाप-पुण्य छोड़कर मोक्ष का मार्ग अपनाना चाहिए।' जीवन दर्शन -
__आचार्य ज्ञानसागर का जीवन के प्रति दृष्टिकोण - प्रत्येक व्यक्ति अनादि काल से नाना प्रकार के राग - द्वेष से ग्रसित रहा है। उनके पूर्व जन्म के संस्कार और वर्तमान परिवेश से एक विशेष प्रकार का जीवन जीने का मार्ग अपनाना पड़ता है। स्थान काल परिस्थिति के भेद से व्यक्ति की मान्यताओं जीवन मूल्यों में अन्तर हुआ करता है। व्यक्ति का धार्मिक विश्वास, जीवन जीने की कला, लोक अभिरुचि आदि मनुष्य को एक विशेष प्रकार का व्यक्तित्व प्रदान करती है।
'आचार्य ज्ञान सागर जी के जयोदयं महाकाव्य में दर्शन - संस्कृत जैन काव्यों में प्रसंगवश वैदिक और अवैदिक दोनों ही दार्शनिक विचारधाराओं के मौलिक सिद्धान्त निबद्ध किये गये हैं। आचार्य ज्ञानसागरजी ने दर्शन का मधुमय वर्णन किया है जिससे वैरस्य नहीं होता। महाकवि अश्वघोष ने सौन्दरनंद में स्वयं लिखा है काव्य का रस सरस होता और दर्शन का उपदेश कटु। जैसे कड़वी औषधि मधु में मिला देने पर मीठी हो जाती है उसी प्रकार कटु उपदेश भी काव्य के सरस आश्रय से मधुर हो जायेगा।
आचार्य ज्ञान सागर जी ने दर्शन के सभी सिद्धान्तों का जयोदय महाकाव्य में वर्णन किया है। स्याद्वाद का उदाहरण देखिए -
नो नक्तमस्ति न दिनं न तमः प्रकाश: नैबाध भानुभवनं न च भानुभासः। इत्यर्हतो नृप! चतुर्थवचो विलास -
सन्देश के सुसमये किल कल्यभासः।। ____ हे राजन! अर्हन्त भगवान् के चतुर्थ वचन की चेष्टा का सन्देश देने वाले प्रातः कालीन दीप्ति के सुन्दर समय में न रात है, न दिन है, न अन्धकार है, न प्रकाश है, न नक्षत्रों का अनुभवन है और न सूर्य की दीप्तियाँ है। परार्थ न अस्ति रूप है, न नास्ति रूपहै, न अस्तिनास्ति रूप है, किन्तु अवक्तव्यं है, क्योंकि एक ही साथ अस्ति - नास्ति ये दो विरोधी धर्म नहीं कहे जा सकते। इसी तरह इस पञ्चम काल में न तो रात है, न दिन है, न अन्धकार है, न प्रकाश है, न नक्षत्रों का अंनुभाव-सद्भाव है और न सूर्य की रश्मियाँ है किन्तु प्रकाश और अन्धकार की एक अवक्तव्य दशा है। 1. जयोदय महाकाव्य, 23/76 2. वही, 18/62
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