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________________ ___ अग्नि ईंधन से और समुद्र सैकड़ो नदियों से भले ही सन्तोष को प्राप्त हो जावे, परन्तु यह पुरुष विषय वांछाओं से सन्तोष को प्राप्त नहीं होता, ऐसा यह मोह रुपी विषय शक्तिशाली है। अनासक्ति रुप से किया गया भोग पाप का कारण नहीं होता है।' मोक्ष के प्रति कवि की दृष्टि - कवि की पुरुषार्थ चतुष्टय में प्रबल आस्था है। उन्होंने धर्म, अर्थ, काम यह तीनों पुरुषार्थ लौकिक सुख के लिए है, लेकिन मोक्ष पुरुषार्थ जन्मान्तरीय आगामी सुख के लिए हैं ऐसा विचार नित्य ही करना चाहिए। पुरुषार्थों में अन्तिम मोक्ष पुरुषार्थ कर्मों के अभाव का कारण रुप उद्यम है। वह त्यागी तपस्वियों में तो अपने किये गये विहित कर्म मात्र का नाशक है। किन्तु श्रावकों के लिए निश्चय ही वह पापों का नाशक है।' मोक्ष से हमारा अगला जीवन सुधर जाता है। - हमारे कुलकरों ने त्रिवर्ग की भक्ति को मोक्ष पुरुषार्थ के प्रति शक्ति प्राप्त करने के लिए उपयोगी बताया है। पहले त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थ) मार्ग का पीछे अपवर्ग (मोक्ष) मार्ग अनुसरण करना होगा। अर्थात् गृहस्थाश्रम में रखकर अन्त में त्यागी बनना होगा। मोक्ष की इच्छा रखने वाले को अध्यात्म विद्या का पान करना आवश्यक है। इसके बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। मुनि धर्म को मानने वाले योगिराज शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। - चौदह लगामों वाले मुख के धारक और जल, स्थल तथा आकाश रूप तीनों मार्गों से गमन करने वाले सफेद घोड़ों द्वारा महाराज जयकुमार ने शीघ्र ही काशीपुरी को वैसे प्राप्त कर लिया जैसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र रुप तीन मार्गों से गमन करने वाले एवं चतुर्दश गुणस्थानों को पार करने वाले शुक्ल ध्यान द्वारा शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर ली जाती है। शुभ और अशुभ दोनों कर्मों का उदय, बन्ध का कारण होने से मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। ज्ञानी जीव अपने पद के अनुरुप शुभाचरण करता हुआ श्रद्धा में उसे मोक्ष का साक्षात का कारण नहीं मानता। यह जीव अपनी आत्मा में विद्यमान सुख को न जानकर पर पदार्थों में सुख को खोजता हुआ दु:खी होता है। जयकुमार ने केवल ज्ञान प्राप्त कर स्नातकत्व अर्हन्त अवस्था प्राप्त कर ली।" सतर सुलोचना ने ब्राह्मणी आर्या के द्वारा अच्युतेन्दु पद प्राप्त किया। 1. जयोदय महाकाव्य, 25/16 2. वही, 23/06 3.वही, 2/10 4. वही, 2/22 5. वही, 12/9 6.वही, 12/108 7. वही, 10/118 8. वही, 3/114 9. वही, 25/64 10. वही, 25/61 ____ 11. वही, 28/20 12. वही, 28/69 333333 8 60 00000000000000000000000000000000000000
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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