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________________ मनुष्य को गुरुओं व मुनियों का आदर करना चाहिए, उनके प्रति भक्तिमान बने रहना चाहिए। गुरुदेव का मंगलमय दर्शन सदा करते रहना चाहिए।' जयोदय महाकाव्य में नायक मुनियों के प्रति पूर्ण निष्ठावान है। उस जयकुमार ने तीन प्रदक्षिणाएँ कर चन्द्ररुप उन साधु महाराज के समक्ष कमलरुप अपने दोनों हाथओं को जोड़कर विनयपूर्वक बैठ गया। कहाँ ऋषिराज इस धरातल पर जिनका दर्शन भाग्यशाली महापुरुषों के लिए भी दुर्लभ है, वह महामणि आज मेरे भाग्योदय से सौभाग्य से मेरे हाथ में शोभित हो रहा है।' हमें अपने जीवन में यथोयोग्य रीति से दान, सम्मान और विनय द्वारा न केवल समानधर्मी लोगों को संतुष्ट रखे बल्कि विधर्मी लोगों को भी अपने अनुकूल बनायें। मनुष्य को सदैव धर्म कार्य में संलग्न रहना चाहिए क्योंकि धर्म का मूल विनय ही है। बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि अपने अन्तरङग को शुद्ध रखने के लिए आस्तिक्य, भक्ति, धृति, सावधानता, त्यागिता अनुभक्तिता, कृतज्ञता और नेष्यप्रतीच्छाय आदि गुणों को प्राप्त करें। इन सब गुणों का अपने जीवन में अवश्य पालन करना चाहिए। कर्म परायण होकर ही धनार्जन करें, अनुचित साधनों का प्रयोग करके धनार्जन नहीं करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह अपने कुलक्रम से आयी हुई आजीविका को चलाता रहे और पाप, पाखण्ड से बचता रहे और जैसा अपने आपको अच्छा लगे, उसी समुचित आश्रम में निरत होकर अपना जीवन बितायें। लेकिन जब तक जिस आश्रम को अपनाये तब तक उस आश्रम के नियमों का उल्लंघन कभी न करें। . किसी भी कार्य के प्रारम्भ में भगवान् जिनेन्द्र का नाम लेकर अपने इष्ट देव का स्मरण करें तो निश्चय ही अपने अभीष्ट धर्म की सिद्धि प्राप्त करेगा। लेकिन यदि वह सदाचार का पालन नहीं करेगा तो वह कभी सिद्धि नहीं पायेगा। अपने कुल की मर्यादाओं में स्थित होकर आचरण करें उसी का नाम सदाचार है। गृहस्थ को चाहिए कि वह कम से कम सदाचार का अवश्य ध्यान रखे। अर्थात् भले पुरुषों को अच्छी लगने वाली चेष्टा, आचरण किया करें, क्योंकि देशना करने वाले भगवान सर्वज्ञ ने सदाचार ही प्रथम धर्म बताया 1. जयोदय महाकाव्य, 2/68 4. वही, 2/72 7. वही, 2/35 2. वही, 1/100 ___5. वही, 2/74 8. वही, 2/75 3.वही, 1/106 6.वही, 2/116 184
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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