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________________ सद्गृहस्थ को शुभ परिणाम में लीन रहना चाहिए। इस प्रकार कवि ने जो गृहस्थ धर्म के कर्तव्य बताए हैं। हमें उनका पालन अवश्य करना चाहिए। उसी के द्वारा मनुष्य अपना गृहस्थ धर्म का निर्वाह भली भाँति कर सकता है। जयोदय महाकाव्य में अर्थ पुरुषार्थ - अर्थ से हमारी सभी आवश्यक वस्तुओं का निर्वाह होता है। इसके बिना कोई भी कार्य नहीं हो सकता है। आचार्य ज्ञानसागर जी ने अर्थ पुरुषार्थ का विवेचन यत्र - तत्र किया है। संसार में एकमात्र घर ही गृहस्थ के लिए भोगों का समुचित स्थान है। उस भोग का साधन धन है। वह धन हमें जनता से मेल जोल करने पर प्राप्त होता है।' क्योंकि सारी सुख सुविधायें अर्थ के द्वारा ही सम्भव है। __ जिस मनुष्य ने अपने अर्थ नाम को सार्थक कर बताया है और जो 1. कंजूसी 2. जितना खाना उतना कमाना और 3. भूल से भी खर्च कर देना इन दोषों से रहित है तो वह मनुष्य दुनिया में प्रतिष्ठा का पात्र बनकर सर्वथा प्रसन्नता का अनुभव करता है। मुनि ने जयकुमार को उपदेश देते समय कहा है कि हर मनुष्य को अपनी योग्यता के अनुसार अर्थोपार्जन करना चाहिए। मनुष्य को अर्थ का अर्जन पुरुषार्थ पूर्वक करना चाहिए। धन को अवनीति पूर्वक नहीं कमाना चाहिए। यह कार्य निन्दा के योग्य है क्योंकि अनुचित तरीके से अर्जित धन से क्या कभी चित्त स्वस्थ्य और प्रसन्न रह सकता है ? अर्थात् कभी नहीं। प्रायः लोभी जनों को विवेक नहीं होता है। व्यक्ति को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होना चाहिए। आचार्य ने धन संग्रह को अनुचित बताते हुए कहा है कि हे दुर्गुणों के स्थान मन! आशारुपी पाश के प्रभाव से शीघ्र ही धन - धाम को अधिकृत करने के लिए आयु व्यतीत कर दी, रात दिन तूने विश्राम नहीं किया अब शीघ्र ही जिनराज के नाम का पुनः उच्चारण कर। इसके बिना तेरा कल्याण नहीं होगा। पृथ्वी, स्त्री, मकान, घर ये सभी प्रपंच आतङक युक्त हैं। यह सब जनसमूह को मोहित करते हैं।' धन सम्पत्ति प्रत्येक दिशा में चमकने वाली बिजली के समान हैं। दिखाई देने वाला यह सब कुछ नामरुपात्मक जगत् अनित्य है, स्थिर रहने - 1. जयोदय महाकाव्य, 18/2 2. वही, 2/21 3.वही, 1/66 4. वही, 2/110 5. वही, 2/111-116 6.वही, 3/1 7. वही, 8/82 8. वही, 23/61 9.वही, 23/65
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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