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________________ अर्थात् उसे प्रसन्न कर भेजना गृहस्थ के धर्म कार्यों में सबसे मुख्य है। . पापों को दूर करने के लिए संयम के उपकरण प्रदान कर अपना यश भूमण्डल पर फैले, इसके लिए दान देता रहे। गृहस्थ को दान देते रहना चाहिए क्योंकि यतियों का गुण तो विनयादि गुणों से ही प्राप्त होता है। गृहस्थ अवसर के अनुसार समान धर्मा गृहस्थ को उसके लिए आवश्यक और गृहस्थोचित कार्यों में सुविधा उत्पन्न करने वाले कन्या, सुवर्ण कम्बल आदि धन सम्पत्ति भी दे। क्योंकि संसार में जीवों का निर्वाह परस्पर के सहयोग से ही होता है। शुक्र, सात्तिक, निराभिष भोजन बुद्धिवर्धक एवं स्वास्थ्यवर्धक होता है। . इस तथ्य को कवि ने निम्नांकित श्लोक में उजागर किया है। दान पूजा के अन्तर गृहस्थ को चाहिए कि वह मनुष्योचित तथा अपने आपके लिए रुचिक निरामिष भोजन अपने कुटुम्ब वर्ग के साथ एक पंक्ति में बैठकर किया करे। थाल में कुछ छोड़कर ही सबके साथ उठे। यह गृहस्थ की सामाजिक सभ्यता भारतीय संस्कृति में गृहस्थ के मरणोपरान्त पिण्डदान आदि कृत्यों के सम्यक् सम्पादन के लिए पुत्र का होना आवश्यक बताया गया है। योग्य पुत्र के होने से गृहस्थ की लोक यात्रा अच्छी तरह से सम्पन्न होती है। इसलिए कवि ने अग्रिम श्लोक द्वारा पुत्र की आवश्यकता जतायी है। जो विचारहीन गृहस्थ व्यर्थ के घमण्ड में आकर सन्तानोत्पत्ति के लिए अपनी सहधार्मिणी के साथ में उचित समय पर भी समागम नहीं करता, उस मूर्ख शिरोमणि गृहस्थ की बिना पुत्र के बुरी स्थिति होगी, ऐसा सन्तों, सज्जनों का कहना है ।। मनुष्य को चाहिए कि जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, परस्त्री सङ्गम, वेश्यागमन, शिकार और चोरी तथा नास्तिक पना इन सबको भी त्याग दे। अन्यथा यह सारा भूमण्डल तरह तरह की आपदाओं से भर जायेगा। मनुष्य को प्रसन्नता के लिए अपने हृदय को शुद्ध या सरल बनाये रखना चाहिए। मनुष्य को षट्पद कहा है। गृहस्थोचित छः कार्य आवश्यक रुप से करने चाहिए। सुलोचना गृहस्थोचित सभी कार्य करती थी जैसे - देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। 1. जयोदय महाकाव्य, 2/92 2. वही, 2/943.वही, 2/95 4. वही, 2/100 5. वही, 2/107 6.वही, 2/124 7. वही, 9/37 8. वही, 12/32 :0020680668
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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