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________________ पक्षियों का प्रयोग जयोदयकार ने किया है। जैन संस्कृति में सर्वाधिक चर्चित वृक्ष कल्पवृक्ष है। इसे सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला बताया गया है। यह तीर्थकर शीतलनाथ का चिन्ह है। जयोदयकार ने भी इच्छा पूर्ति के लिए कल्पवृक्ष' का प्रयोग किया है तथा अन्य वृक्षों का उल्लेख किया है। रम्भातरु', ताड़, आम्र', चन्दन, सागोन", देवदारू' आदि। कविवर ज्ञानसागर की बहु आयामी दृष्टि कवि की दृष्टि में गृहस्थ के लिए विहित कर्म - सच्चे कवि की दृष्टि क्रान्ति दर्शी होती है, कुछ की एकागी होती है, लेकिन जयोदय महाकाव्य के प्रणेता आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज की दृष्टि समन्वयात्मक थी। एक गृहस्थ के लिए उपयोगी सभी बातों का निर्देश प्रारम्भिक सर्गो में कवि ने किया है। . कविवर ज्ञानसागर जी महाराज ने अपने जयोदय महाकाव्य में गृहस्थ धर्म का विशद् विवेचन किया है। धर्म, अर्थ और काम गृहस्थ के करने योग्य पुरुषार्थ है। गृहस्थ अपनी बुद्धि से परस्पर अनुकूल तीनों पुरुषार्थ करते हुए जीवन यापन करें। इस प्रकार कवि ने त्रिवर्ग सेवन पर बल दिया है। संसार में एकमात्र घर ही गृहस्थ के लिए भोगों का समुचित स्थान है। उस भोग का साधन धन है अतः गृहस्थ को धनार्जन करना चाहिए वह धन जनता से मेल जोल रखने पर प्राप्त होता है। इसलिए गृहस्थ ही धर्मादि त्रिवर्ग का संग्राहक होता है।' देव पूजन कभी निष्फल नहीं जाता। गृहस्थ धर्म में देव - पूजा को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। प्रातः काल के समय गृहस्थ की मन और इन्द्रिया प्रसन्न रहती है। अतः उस समय प्रधानतया सब अनर्थों का नाश करने वाला देव - पूजन करना चाहिए, ताकि सारा दिन प्रसन्नता से बीते। प्रसिद्ध है कि दिन के प्रारम्भ में जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया जाता है, वैसा ही सारा दिन बीतता है। भगवान् अरहंत देव की सर्वप्रथम पूजा करनी चाहिए क्योंकि वे ही मंगलों में उत्तम और शरणागत वत्सल हैं। वे देवताओं से भी श्रेष्ठ देव हैं। उनके समान शरीरधारियों का हित करने वाला दूसरा कोई नहीं है।" 1. जयोदय महाकाव्य, 23/18 2. वही, 1/51 3.वही, 11/21 4. वही, 14/1 5. वही, 1/86 6.वही, 23/13 7. वही, 14/15 8. वही, 21/28 9. वही, 2/19 10. वही, 2/21 11. वही, 2/23
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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