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सागर जी ने तिथियों के बारे में बताया है। वह राजा ज्योतिरीश अर्थात् कांतिमान् होते हुए ज्योतिर्विद् है, कारण इसकी वाणी सदा नन्दा है (आनन्द देने वाली या आदि तिथि) है। इसकी कीर्ति भद्रा (मनोहरा या दूसरी तिथि) है। वीरता विजया (जय करने वाली या तीसरी तिथि) है। लक्ष्मी रिक्तातिथिका (गरीबों के काम में आने वाली या चतुर्थी तिथि) है। पंचमी तू पूर्णा (इसके मनोरथ को पूर्ण करने वाली या पूर्णा तिथि) बनकर रह ।'
सूर्यग्रहण अमावस्या के दिन होता है। इस पर जयकुमार ने सोचा कि देखो, अमावस्या के दिन सूर्य के समान इस मांगलिक वेला में तेजस्वी अर्ककीर्ति भी रोषरुप राहु द्वारा ग्रस्त होकर ग्रहण भाव को प्राप्त हो रहा है। यह सोचकर सुलोचना का पति जयकुमार भी कुछ विचार को प्राप्त हुआ।
नागपाश में बांधकर जयकुमार ने अर्ककीर्ति को अपने रथ में डाल दिया। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि राहु द्वारा आक्रान्त सूर्य ही हो। जैसे नाशपाश तो राहु और अर्ककीर्ति हुआ सूर्य ।' कविवर ज्ञानसागर का शास्त्रीय वैदुष्य -
सांख्य, बौद्ध और जैन मत के सिद्धान्तों को संक्षेप में कवि ने किस प्रकार प्रकट किया है, यह दर्शनीय है - कूटस्थतां श्वमरीचिरन्पेति तात,
'भृष्टाध्वरो भवति वा द्विजराडिहातः॥ स्याद्वादभागुदित पिच्छगणस्य वृत्तिः
सा सोगताय नियता क्षणदाप्रवृत्तिः।। हे तात! श्वरमरीचि-सूर्य, कूटस्थतापेति - पूर्वाचल के शिखर पर स्थिति को प्राप्त हो रहा है। (पक्ष में श्वर स्पष्टवादी, मरीचिसांख्य मत का प्रवर्तक) कूटस्थता - नित्येकवाद को, उपेति प्राप्त हो रहा है। द्विजराट - चन्द्रमा, भ्रष्टाध्वरो - छूटे मार्ग को प्राप्त हो रहा है। (पक्ष में द्विजराङ-ब्राह्मण, भ्रष्टाध्वर - हिंसक यज्ञ को प्राप्त हो रहा है: उदितपिच्छगणस्यवृत्तिः-ऊपर पूंछ उठाने वाले मुर्गे की वृत्ति वादभाग - शब्द को प्राप्त हो रही है। (पक्ष में मयूरपिच्छ को धारण करने वाले दिगम्बर मुनियों की वृत्ति, स्याद्वाद भाग - स्याद्वाद वाणी को प्राप्त हो रही है और क्षणदाप्रवृत्ति - रात्रि की प्रवृत्ति सौगताय नियता - अच्छी तरह समाप्त हो गई है (पक्ष में सौगत - बौद्धमत को प्राप्त हो गई है क्षणिकवाद को स्वीकृत कर रही है)। 1. जयोदय महाकाव्य, 6/88 2. वही, 7/73
3. वही, 8/81 4. वही, 18/60