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हे. सखि! पति मित्रवत् अर्थात् तुम्हारे समान ही प्रशंसनीय है यह तुम नहीं जानती हो। सखि के ऐसा कहने पर नायिका उत्तर देती है। हे आलि उपपति परम मित्र के समान प्रंशसनीय है यह तुम नहीं समझती हो। भाव यह है कि यदि पति मित्र के समान है तो उपपति परम मित्र के समान है।
- श्लेष के द्वारा अर्थ बताया गया है। व्याकरणमे शस प्रत्यय द्वितीया के बहुवचन से लेकर पति और सखि शब्द के रूप एक समान चलते हैं और उपपति और अतिसखि शब्द के रुप भी द्वितीया के बहुवचन से लेकर समान चलते हैं।
इन विभिक्ति रूपों का ज्ञान व्याकरण से ही संभव है। जो कवि की व्याकरणात्मक व्युत्पत्ति को सूचित करता है।
निसर्ग एषोऽ पितवाथ भातु विसर्गलोपं सहसे न जातु। उदिदश्यमाना त्रिजगद्विता या हे लक्ष्मि ! मां मातृवदाशु पायाः॥
हे लक्ष्मि! आपका यह स्वभाव सदा विद्यमान रहे कि आप कभी विसर्ग के लोप को सहन नहीं करती। जिस प्रकार व्याकरण में विसर्ग के लोप को सहन नहीं किया जाता है। परमार्थ से आपका जो दान स्वभाव है उसे कभी नहीं छोड़ती और शब्द स्वरुप की अपेक्षा आप लक्ष्मी शब्द के आगे रहने वाली विसर्गो को नहीं छोड़ती।
उच्चारणमात्र से आप त्रिजगत् का हित करने वाली हो अतः माता के समान आप शीघ्र ही मेरी रक्षा करें।
उपर्युक्त श्लोक में विसर्ग लोप की ओर संकेत किया गया है जो कवि के व्याकरणात्मक वैदुष्य का सूचक है। जयोदय महाकाव्य में ज्योतिषशास्त्र -
आचार्य ज्ञान सागर जी की ज्योतिष शास्त्र पर पूर्ण आस्था थी। उन्होंने अपने काव्य में तिथियों व नवग्रहों का वर्णन किया है।
__ सुलोचना की सभा में जब राजकुमार आये तब उनको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि शूरवीर (सूर्य) बुद्धिमान (बुधग्रह), कवि (शुक्र) महान् वक्ता (बृहस्पति) होकर मंगल (ग्रह या कल्याण) चाहने वाले उपस्थित है। किन्तु इनमें वह सोम्यमूर्ति (चन्द्रग्रह या जयकुमार) कौन है ? जो मेरी प्रसन्नता का आश्रय हो (अथवाकुमुदों को प्रसन्न करने वाला हो) यही सोचकर ही में शनेश्चर (शनिग्रह या धीरे - धीरे चलने वाली) बन रही हूँ।
कवि ने राजकुमारों की ग्रहों के साथ बहुत सुन्दर तुलना की है। ज्ञान 1. जयोदय महाकाव्य, 19/35 2. वही, 5/91
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