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________________ साध्वी सुलोचना सभी वर्गों एवं मात्रा की अधिकारिणी है। उसने मेरे मन को अधिकार क्षेत्र में कर लिया है। इससे भी कवि का व्याकरणात्मक वैदुष्य सूचित होता है। एक अन्य उदाहरण में कवि के व्याकरण सम्बन्धी वैदुष्य को देखा जा सकता है - अवर्णनीयप्रभयान्विता मेहवर्णनीयाङ्गमिताभिरामे। स्वान्ते विवणातिशयेकजातिः प्रत्याहृता भाति सुवर्णतातिः॥ सुलोचना अद्वितीय प्रभा से युक्त होकर गुणों के द्वारा आश्रय लेने योग्य शरीर से युक्त है। यह अ अक्षर से वर्णनीय प्रभा से, और ह अक्षर से वर्णनीय शरीर से युक्त होकर आश्चर्य गर्भित आनन्द मय स्वरुप से युक्त है। इसने अ से ह तक की पूरी की पूरी वर्णमाला को प्रत्याहार बना लिया है, इसे सम्पूर्ण वर्णमाला कंठस्थ है। यह सरस्वती के समान मालूम पड़ती है। __ मञ्जुलद्यो गुणसारे किल क्वचित् सुसखिः नापदाधारे। तत्रोपयतो चेतः पत्यौ नानीदशि ममेतः।। हे सखि! जो मनोहर और लघु शरीर वाला है, गुणों में श्रेष्ठ है तथा आपत्तियों का स्थान नहीं है ऐसे उपपत्ति जार में अब मेरा चित्त लग रहा है इसके विपरीत विरुप, गुणहीन और विपत्तियों के स्थानभूत पति में नहीं लग रहा है। पति और उपपति दो शब्द है। इनमें उपपति शब्द की शेषोध्यसखि सूत्र से घि संज्ञा होती है। उपपति शब्द से डित् विभक्ति पड़े रहते गुण' होकर उपपतये रुप बनता है तथा उपपति शब्द की तृतीया एकवचन में ना आदेश होकर उपपतिना रूप बनता है। ऐसे उपपति शब्द में मेरा मन लग रहा है। पति शब्द के चिन्तन में नहीं क्योंकि उसकी घि संज्ञा नहीं होती, उसमें डित् विभक्ति पड़े रहते गुण नहीं होता और तृतीय के एक वचन में ना आदेश नहीं होता है। एक अन्य रूचिकर उदाहरण द्रष्टव्य है - सखि ! शस्तः सखिवत्यतिरिति किं सिद्धान्ततो न जानासि। शस्तोऽ तिसखिवदुपपतिरित्यालिः न किं समानासि। 1. जयोदय महाकाव्य, 11/80 2. आदिरन्त्येन सहेता, अष्टाध्यायी 3. जयोदय महाकाव्य, 16/73 4. घङिन्त, 7/3/111. अष्टाध्यायी-इस प्रकृत सूत्र से यहाँ गुण हुआ। 5. यहा 'दा' सुप् प्रत्यय के स्थान पर आङो नास्त्रियाम्, 7/3/120. अष्टाध्यायी 6. जयोदय महाकाव्य, 16/73 72
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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