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________________ वृद्धि करने वाले हैं। प्राणिमात्र का हित करते हैं वे इस प्रशस्त गुणों से सुविख्यात यतिराज मुमुक्षुजनों के बीच पूज्यपाद हैं । ___व्याकरण में धातु के आगे गुण' और वृद्धि' संज्ञाओं को बताने वाले, तद्वित और कृदन्त प्रकरणों को स्पष्ट करने वाले तथा संज्ञात्मक शब्दों की व्याख्या करने वाले पूज्यपाद नामक आचार्य वैयाकरणों में प्रमुख हैं। यहाँ कवि ने ऋषिराज व वैयाकरणों की सुन्दर तुलना की है। उद्धरन्नपिपदानि सन्मनः शब्दशास्त्रमनतोषयज्जनः। श्री प्रमाणपदवीं व्रजेन्मुदा वाग्विशुद्धिरुदितार्थ शुद्धिदा। प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि शब्दशास्त्र पढ़कर उसके अनुसार प्रत्येक शब्द की निरुपित और सज्जनों के मन को रंजित करते हुए अनायास व्याकरण शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करे। क्योंकि वचन की शुद्धि ही पदार्थ की शुद्धि की विधायक होती है। अर्थ को जानने के लिए विभक्तियों, व लिड्गों तथा व्याकरण का ज्ञान परम आवश्यक है। अर्थ ज्ञान के बिना अध्ययन निष्फल है। शब्द शास्त्र की ही अपर संज्ञा व्याकरण है। व्याकरणात्मक वैदुष्य की एक और बानगी देखिए - सदूष्मणा न्तस्स्थसदंशशुकेन स्तनेन साध्वी मुकुलोपमेन। चेतश्चुरा या पटुतातुलापि स्वरङ्गनामानयिता रुचापि। इसमें जयकुमार सुलोचना के रूप सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि सुलोचना का शरीर यौवन की ऊष्मा से युक्त, चोली से आवृत और स्तन युगल से उपलक्षित, साध्वी सुचरिता होती हुई भी दूसरों के मन को चुराने वाली चतुरता के लिये आदर्श है। उसने अपनी कान्ति से देवागनाओं में सम्मान प्राप्त किया था। व्याकरण की दृष्टि से इसका दूसरा अर्थ यह है कि उष्मवर्ण श ष स ह, एवं अन्त:स्थवर्ण य र ल व से उपलक्षित मु - म वर्ग अर्थात् प वर्ग प फ ब भ म एवं कु - कवर्ग अर्थात् क ख ग घ ङ् इन वर्गों से विभूषित स्तनों से टवर्ग - ट ठ ड ढ ण की रक्षिका, तवर्ग - तथा द ध न से युक्त चवर्ग - च छ ज झ ञ को अपनी सम्पदा समझने वाली तथा अकार आदि समस्त स्वर और उनके अगों के नाम के अपूर्व ज्ञान से समुन्नत होती हुई कान्ति से 1. 'अदेङ गुण: अष्टाध्यायी 2. वृद्धिरदैत्त् तदैव 3. जयोदयमहाकाव्य 2/52 4. जयोदयमहाकाव्य 11/78 ४ ९.४८-८-८-5656508656326555522558
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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