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व्याकरण से अनभिज्ञ व्यक्ति एक ऐसा प्राणी है जो वाणी को देखता हुआ भी नहीं देखता और सुनता हुआ भी नहीं सुनता, परन्तु व्याकरण के विद्वान् के लिए वाणी अपने रुप को उसी प्रकार अभिव्यक्त करती है जिस प्रकार सुन्दर वस्त्रों से सुसजित कामिनी अपने पति के सामने अपने को समर्पण करती है।
उत् त्वः पश्यन् न ददर्श वाचस् उत त्वःश्रणवन् त श्रणोत्येनाम्॥ उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे जायेव पत्ये उशती सुवासाः॥
प्रत्येक सुकवि का शब्दशास्त्र पर अच्छा अधिकार होता है। इसीलिए उसकी अभिव्यक्तियाँ सुष्ठु, साधु संगत तथा समीचीन होती है। ,
जब हम जयोदय महाकाव्य में आचार्य ज्ञानसागर जी के व्याकरणात्मक वैदुष्य का दर्शन करेंगे। · न वर्णलोपः प्रकृतेर्न भङ्ग कुतोऽपि न प्रत्ययवत्प्रसङ्गः।
यत्र स्वतो वा गुणवृद्धिसिद्धिः प्राप्ता यदीयापदुरीतिऋद्धिम्।
परिसंख्या अलङ्कार के सहारे कवि ने जयोदय महाकाव्य के प्रथम सर्ग में बड़े ही प्रभावशाली ढंग से यह प्रतिपादित किया है कि नृपति जयकुमार की शासन प्रणाली एक आदर्श प्रणाली थी। उस राजा की पदरीति समृद्धि प्राप्त थी। जबकि व्याकरण शास्त्र में पदों में कहीं - कहीं किसी वर्ण का लोप पाया जाता है लेकिन उसके राज्य में ब्राह्मणादि वर्गों का लोप नहीं था। अमात्यादि प्रधान पुरुषों का भङ्ग अर्थात् अपमान नहीं होता था। जब कि व्याकरण में किसी प्रत्यय से प्रभावित होने पर प्रकृति अर्थात् मूल तत्व में परिवर्तन हो जाता है। उसके शासन में कभी उन्मार्ग गमन का प्रसङ्ग ही नहीं आता था। इसी तरह व्याकरण भी असाधु शब्दों के प्रयोग की स्वीकृति नहीं देता। प्रजाओं में शौर्यादि गुणों की वृद्धि स्वतः होती थी, जबकि व्याकरण में प्रत्यय, गुण और वृद्धि आदि द्वारा पदों की निष्पत्ति होती है। इस तरह वैयाकरण की पदरीति वर्णलोप से युक्त होती है, प्रकृति (मूलतत्व) विकारयुक्त और प्रत्ययवती होती है। पदों की निष्पत्ति गुण वृद्धि पूर्वक प्रवर्तित होती है। ये बातें जयकुमार के राज्य में नहीं थी।
एक अन्य उदाहरण व्याकरणात्मक ज्ञान का - भवि धुतोऽग्रविधिगुणवृद्धिमान् सपदि तध्दितमेव कृतं भजन्। यतिपतिः कथितो गुणिताहवयः सतत मुक्तिविदामितिं पूज्यपात्॥ ऋषिराज जिन्होंने पृथ्वी पर पापकर्म को नष्ट कर दिया है जो गुणों की
1. जयोदयमहाकाव्य 1/13 2. जयोदयमहाकाव्य 1/95
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