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________________ 9. जितेन्द्रिय पुरुष को पूर्व अर्जित धन आदि में भी विरक्ति भाव धारण करना चाहिए । अर्थात् उनका त्याग करे । 10. सांसारिक कार्यों से मन हटाकर सम्पूर्ण समय परम तत्व का चिन्तन करना चाहिए । 11. आचार सिद्धि के लिए अपने चित्त को लोक मार्ग में नहीं लगाना चाहिए । इस प्रकार मुनिराज के अमृत तुल्य वचनों से देवदत्ता और पण्डिता दासी का मोह दूर हो गया। दोनों ने सुदर्शन मुनिराज से दीक्षा लेकर आर्यिका बन गयी । देवदत्ता को उपदेश देकर सुदर्शन भी शमशान में जाकर आत्मध्यान में लीन हो गये । एक दिन विहार करती व्यन्तरी ने सुदर्शन को देख लिया । सुदर्शन को देखते ही उसे पूर्व भव याद आ गया और बदला लेने के लिए उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया । और अपशब्द बोलने लगी। किन्तु अपनी नश्वर देह पर अत्याचार की चिन्ता न करके वह अजर व अमर आत्मा के प्रति चिन्तन करने लगे। सुदर्शन मुनिराज का अवशिष्ट राग द्वेष नाश को प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया । तथा अद्यातिया कर्मो का नाश हो जाने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई । मुनि मनोरंजनाशीति का संक्षिप्त कथासार यह मुक्तक काव्य है । इसमें श्री मान्नभिराजा के पुत्र भगवान् वृषभदेव ने जो मुनिवृत्ति को प्रकट किया उसका निरुपण किया गया है। इस ग्रन्थ में साधुता का स्वरुप, निर्ग्रन्थवृत्ति का स्वरुप, अहिंसा महाव्रत का स्वरुप, सत्य महाव्रत का स्वरुप, अचौर्यमहाव्रत का स्वरुप, ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरुप, परिग्रत्याग महाव्रत का स्वरुप बतलाया गया है । तथा अहिंसाव्रत प्रमुख है अहिंसा धर्मवृक्ष की मूल है। ईर्यासमिति के स्वरुप में साधु के एक स्थान पर विश्राम का काल, चातुर्मास का काल, वर्षा योग के बाद विहार करें यह निरुपित किया गया है। भाषा समिति का स्वरुप, एषणा समिति का स्वरुप, आहार शुद्धि साधु के गमन की विशेषताएं, साधु के आहार की विशेषता, एषणासमिति की प्रसिद्ध विधि, आहार के समय परिहरणीय सचित्तादि आहार का त्याग, परिमार्जन काल, आदान निक्षेपणसमिति का स्वरुप, प्रतिष्ठापन समिति का स्वरुप, सभी जीवों में समभावना का उपदेश स्वावलम्बनमय जीवन की शिक्षा, समता आवश्यक का स्वरुप, भेद विज्ञान की प्राप्ति का लक्ष्य, मुनिपद ही कल्याण कल्पदुम, मुनि तप और ऋद्धियों का गर्व न करें, सहृदय मनुष्य की भावना, रत्नत्रयधारी की परिणति, साधु को साम्यपद ही श्रेष्ठ, साम्य का साधक स्तवन, वन्दना और प्रतिक्रमण को अपनाये, कायोत्सर्ग का स्वरुप, कायोत्सर्ग का 68
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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