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________________ अपनाया है ? परलोक की चिन्ता तो वृद्धावस्था में की जाती है। इस समय इस सुन्दर शरीर का अनादर आप क्यों कर रहे है । वेश्या के इन वचनों को सुनकर मुनिराज सुदर्शन बोले कि इस शरीर में तू क्या सौन्दर्य देखती है ? यह तो घृणा का स्थान है । यह शरीर ऊपर से सुन्दर दिख रहा है । नाशवान शरीर का सुख आत्मा का सुख नहीं है। आत्मा को सुख पहुँचाने के लिए शरीर के वशवर्ती नहीं रहना चाहिए। तुम्हारे द्वारा यह अंगीकृत मार्ग पर्वत के समान ऊँचा नीचा है । तुम इन्द्रिय विषयों में सुख मानती हो जबकि सुख आत्मा का गुण है। उसका इन्द्रिय विषयों से कोई प्रयोजन नहीं है । अपने वचनों का विरागयुक्त उत्तर पाकर वेश्या सुदर्शन मुनिराज को अपनी शय्या पर ले गई और अपने हाव भाव दिखाना प्रारंभ कर दिया । किन्तु सुदर्शन के ऊपर उसकी काम चेष्टाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वेश्या ने तीन दिन तक अपनी सभी संभव कलाओं का प्रयोग किया पर उन पर उसका कोई असर नहीं हुआ । तब उसने आश्चर्य चकित होकर उनकी प्रशंसा करती हुई उनके गुण गाने लगी। उनकी नम्रता, धीरता, जितेन्द्रियता, दृढ़ता की प्रशंसा करती हुई वह बोली मोह अन्धकार के कारण मैंने आपके प्रति जो अपराध किया है उसे क्षमा करें और धर्म युक्त वचनों से मेरा कल्याण करें । देवदत्ता के इन वचनों को सुनकर सुदर्शन मुनिराज ने उसे उपयुक्त आचरण का स्वरूप समझाया कि पुरुष को जितेन्द्रिय बनने के लिए एकादश नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए । 1. विचारशील मनुष्य को सभी अभक्ष्य, अनुपसेव्य, अनिष्ट, त्रस - बहुल एवं अनन्त स्थावर काय वाले पदार्थों के खाने का त्याग करना चाहिए । 2. गुणों में अनुराग पूर्वक अतिथि को शुद्ध भोजन कराकर स्वयं भोजन करे तथा सदा सदाचार में तत्पर रहना चाहिए । 3. जीवन पर्यन्त त्रिकाल सामायिक करना चाहिए । 4. प्रत्येक पर्व के दिन यथा विधि उपवास करे । 5. प्रत्येक वस्तु को पका कर खाना चाहिए। 6. दिन में दो बार से ज्यादा खान पान न करे और एक ही बार खाने का अभ्यास करें। मानवता को धारण कर निशाचरता को न प्राप्त करें। रात्रि में भोजन न करें । 7. काम सेवन का सर्वथा परित्याग करना चाहिए । 8. इन्द्रिय विषयों पर नियंत्रण रखकर आत्मिक गुणों की प्राप्ति के लिए उद्यत रहना चाहिए । 67
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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