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________________ इस आकाशवाणी को सुनकर राजा का सब अज्ञान, मोह दूर हो गया और वह सुदर्शन के पास जाकर अपनी भूल के लिए क्षमा मांगने लगा और चरण पकड़कर अपने स्थान पर उसी से राज्य करने का निवेदन करनेलगा। राजा की बात सुनकर सुदर्शन महापुरुष ने कहा कि राजन् इसमें आपका कोई दोष नहीं है। यह सब तो मेरे पूर्वकृत कर्म का दोष है। आप तो अपराधी को दण्ड ही दे रहे थे जो आपके लिए उचित था। राजन् इस घटना का मेरे मन में जरा भी विकार नहीं है। इस संसार में न कोई किसी का मित्र है न शत्रु। महारानी और आप तो मेरे माता-पिता समान है। आपने मेरे साथ जो किया वह उचित था। प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति के लिए मद, मात्पर्य आदि दुर्भावो का परित्याग करना चाहिए संसार में सुख-दु:ख में एक समान रहना चाहिए। सुख आत्मा का गुण है। वह राज्य को पाकर नहीं मिल सकता, राज्य आप करें अब तो निर्वृत्ति ही मेरे योग्य है। इस घटना के पश्चात् सुदर्शन ने मुनि बनने का निश्चय कर लिया और घर जाकर अपना अभिप्राय अपनी पत्नी मनोरमा से कहा। उसने कहा जो तुम्हारी गति सो मेरी गति यह सुनकर सुदर्शन प्रसन्न हुआ। सुदर्शन ने जिनालय में जाकर प्रसन्नतापूर्वक भगवान् का पूजन अभिषेक किया। वही पर विराजमान विमलवाहन नाम के योगीश्वर के दर्शन किये और उन्हीं आचार्य से दोनों ने जिन दीक्षा ले ली और सुदर्शन मुनि बनकर तथा मनोरमा आर्यिका बनकर रहने लगे। इधर रानी को जब अपनी भेद खुल जाने की बात ज्ञात हुई तो शर्म से फाँसी लगा कर मर गई और मर कर वह पाटिलपुत्र में व्यन्तरी देवी हुई। पण्डिता धाय राजा के भय से भागकर पाटिलपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या देवदत्ता की शरण में गई। वहाँ जाकर उसने सारी कहानी सुनाई और सुदर्शन को विचलित करने के लिए कहा। नवम सर्ग - सुदर्शन मुनिराज ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक दिन गोचरी के लिए पाटीलपुत्र आये। वहाँ सुदर्शन को देखकर पण्डिता दासी ने देवदत्ता वेश्या को उकसाया। यह सुनकर देवदत्ता ने मुनि का पड़ गाहन किया और अनेक प्रकार की काम चेष्टाओं से सुदर्शन को वश में करना चाहा। जब उसकी चेष्टायें निष्फल हो गयी तो सुदर्शन से बोली कि इस अल्पवय में आपने यह व्रत क्यों 66
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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