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________________ के लिए गयी तभी द्वारपाल ने उसे रोक लिया। दासी ने कहा कि आज रानी अभयमती का उपवास है अतः वह यह पुतला देखकर ही पारणा करेगी। इसी. उद्देश्य से भीतर ले जा रही हूँ। अतः मुझे जाने की आज्ञा दो। द्वारपाल ने दासी को धक्खा देकर बाहर किया तो दासी की पीठ पर रखा हुआ पुतला गिरकर टूट गया। इस पर दासी ने जोर-जोर से रोना प्रारम्भ कर दिया। और अपशब्द बोलने लगी। उसकी बात सुनकर द्वारपाल डर गया और अदर जाने की आज्ञा दे दी। इस प्रकार दासी प्रतिदिन बिना रोक टोक के पुतला महल में ले जाने लगी। अष्टमी के दिन प्रोषधोपवास ग्रहण कर सुदर्शन सेठ शमशान में सदा की तरह ध्यानावस्था में बैठा था। दासी ने वहाँ पहुँच कर सुदर्शन को रानी के सहवास हेतु प्रेरित किया जब सुदर्शन पर उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसने उसी ध्यानावस्था में सुदर्शन को अपनी पीठ कर लाद लिया और वस्त्र से ढक्कर रोज की तरह रानी के कक्ष में पहुंचा दिया। सुदर्शन को अपने पास पाकर रानी बहुत खुश हुई। उसने सुदर्शन को डिगाने के लिए अनेक प्रयत्न किये किन्तु सुदर्शन की वैराग्य भावना और भी दृढ़ हो गयी। अपनी काम चेष्टाओं को निष्फल देखकर वह त्रिया चरित्र करना उचित होगा यह सोचकर जोर - जोर से चिल्लाने लगी अरे द्वारपाल दोड़ो यहाँ कोई दुष्ट घुस आया है और मुझे सताना चाहता है। रानी की पुकार को सुनकर सुभट द्वारपाल जल्दी से अन्दर आये व सुदर्शन को राजा के समीप ले गये। राजा ने सम्पूर्ण वृत्तान्त को सुनकर उसे प्राण दण्ड की आज्ञा देकर चाण्डाल को सौंप दिया। अष्टम सर्ग - जब सुदर्शन के बारे में लोगों ने सुना तो लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। कुछ लोग कहने लगे कि सुदर्शन तो पर्यों के दिन शमशान में प्रोषधोपवास धारण करता हैं। राजमहल में कैसे पहुँच गया। कुछ लोगों ने कहा सुदर्शन एन्द्रजालिक है। - जब राजा ने सुदर्शन का वध करने का चाण्डाल को आदेश दिया। चाण्डाल ने ज्यों तलवार का प्रहार किया कि वह फूल माला बनकर सुदर्शन के गले का हार बन गई। जब राजा को यह बात ज्ञात हुई तो वह क्रुद्ध होकर स्वयं ही सुदर्शन को मारने के लिए उद्यत हो गया। ज्यों ही आकर सुदर्शन को मारने के लिए उसने हाथ में तलवार ली त्यों ही उसके अभिमान का नाश करने वाली आकाशवाणी हुई कि यह सुदर्शन अपनी ही स्त्री से सन्तुष्ट रहने वाला महान् जितेन्द्रिय पुरुष है। यह सब प्रकार से निर्दोष है। अपने ही घर के छिद्र को देखो और दोषी का निरीक्षण करो।
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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