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________________ पर मोहित हो गयी। उसने सुदर्शन को छल से बुलाने का निश्चय किया। दासी के द्वारा दोस्त की बीमारी का बहाना करके घर बुलाया। जब सुदर्शन दोस्त को अस्वस्थ जानकर उसके कक्ष में गया जहाँ कपिला ब्राह्मणी लेटी थी। उसने रति चेष्टायुक्त मधुर वाणी में स्वागत करते हुए उनका हाथ पकड़ लिया। अपने मित्र के स्थान पर उसकी स्त्री को देखकर वह घबरा गया। तब चतुर सुदर्शन ने अपने को नंपुसक बताकर उससे पीछा छुड़ाया और घर लौट आया। षष्ठ सर्ग - सबके मन को मोहित करने वाली बसन्त ऋतु का आगमन हुआ वन क्रीडा के लिए सब लोक उद्यान में गये। रानी अभयमती भी उद्यान में गयी, वहाँ सुदर्शन की पत्नी मनोरमा अपने पुत्र सहित उद्यान में आई तब उसको देखकर कपिला ब्राह्मणी ने रानी से उसका परिचय पूछा। रानी ने बतलाया कि यह नगर के सेठ सुदर्शन की पत्नी है। कपिला तिरस्कार के साथ बोली कि कहीं नपुंसक के भी पुत्र होते हैं। उसने अपनी आप बीती बातें रानी को सुना दी। यह सुनकर रानी ने कहा कि कपिला सुदर्शन ने झूठ कह कर तुझे धोखा दिया है। तब कपिला ने रानी से कहा कि वह सुदर्शन को वश में करके दिखाए। . कपिला की चुनौती ने रानी के मन में कामभाव जागृत कर दिया। वह हर समय सुदर्शन के ही बारे में सोचने लगी और निरन्तर कृष होती रही। रानी की दशा देखकर दासी ने रानी से इस मनोव्यथा का कारण पूछा। रानी ने अपना अभिप्राय पण्डिता धाय से कहा। दासी ने कहा आप ऐसा घृणित कार्य छोड़ दीजिए। परपुरुष से कामजन्य स्नेह ठीक नहीं। पर रानी पर उसकी बातों का कुछ प्रभाव नहीं पड़ा। रानी ने कहा कि स्त्री भोग्या होती है। उसको अवसर पाते ही बलवान पुरुष के साथ रमण कर लेना चाहिए। अब तू सुदर्शन को लाने का प्रबन्ध कर। दासी ने विचार किया कि रानी को समझाने में समर्थ नहीं हो सकूँगी क्योंकि मैं उनकी दासी हूँ अतः आज्ञा का पालन करना ही उचित है। उसने सोचा कि अष्टमी चतुर्दशी पर्व के दिन सुदर्शन सेठ शमशान भूमि में प्रतिमा योग द्वारा आत्मध्यान में संलग्न होते है। इस अवस्था में उन्हें पूजा हेतु मिट्टी के पुतले के बहाने रनवास में लाया जा सकता है ऐसा विचार कर अपने कर्तव्य को सिद्ध करने के लिए उद्यत हो गई। सप्तम सर्ग - पण्डिता दासी ने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए एक मिट्टी का पुतला बनवाया और उसे वस्त्र से ढक कर पीठ पर लादकर अन्त:पुर में प्रवेश करने
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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