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वृषभदास अति प्रसन्न हुआ। वृषभदास ने भक्ति पूर्वक जिनगृह में जाकर जिनेन्द्र देव का पूजन किया तथा अत्यधिक दान दिया। वृषभदास ने प्रसूति गृह में पहुँच कर पत्नि और पुत्र पर गन्धोदक छिड़का। सेठ पुत्र दर्शन से पहले जिनदेव के दर्शन करने गया था अतः स्वभाव से सुन्दर उस बालक का नाम सुदर्शन रखा। बालक अपनी बाल चेष्टाओं से घर के सभी लोगों के हर्ष में वृद्धि करने लगा।
कुमार अवस्था प्राप्त होने पर सुदर्शन को विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा गया। माँ सरस्वती की कृपा से वह सभी विद्याओं में पारंगत हो गया।
धीरे - धीरे युवा अवस्था को प्राप्त होकर सुदर्शन का सौन्दर्य बढ़ने लगा। एक समय सागरदत्त नामक वैश्य की पुत्री मनोरमा को सुदर्शन ने जिन मन्दिर में पूजन करते समय देखा। तभी से दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगे। कुछ समय के पश्चात् यह वृत्तान्त सेठ वृषभदास को भी पता चला। वह इस बारे में सोच ही रहे थे कि वहाँ मनोरमा के पिता सेठ सागरदत्त आ गये। वृषभदास ने उनका आदर सत्कार किया तथा आने का प्रयोजन पूछा। सागरदत्त ने कहा कि वह अपनी कन्या मनोरमा का विवाह सुदर्शन के साथ करना चाहते हैं। वृषभदास ने हर्षित होकर विवाह की स्वीकृति दे दी और शुभ दिन शुभ बेला में मनोरमा और सुदर्शन का विवाह हो गया। चतुर्थ सर्ग -
एक समय उस नगर के उपवन में एक ऋषिराज पधारे। चम्पापुरी के लोग उनके दर्शन के लिये गये। सेठ वृषभदास भी अपने परिवार सहित दर्शन के लिए गया। मुनि को प्रणाम किया। मुनि राज ने धर्म वृद्धि का आशीर्वाद दिया तब सेठ ने धर्म का स्वरूप पूछा। मुनिराज ने धर्म अधर्म का स्वरुप और भेद समझाये। मुनि की अमृतवाणी को सुनकर सेठ का मोह दूर हो गया तथा वह सब कुछ त्याग कर मुनि बन गया।
मुनि के वचन व पिता के आचरण से प्रभावित होकर सुदर्शन ने भी मुनि बनने की अपनी इच्छा मुनि राज के सामने प्रकट की, और कहा कि मनोरमा के प्रति प्रीति मुझे मुनि बनने में बाधा उत्पन्न करती है। सुदर्शन की बात सुनकर मुनि राज बोले कि हे सुदर्शन ! तुम दोनों के अनुराग का कारण पूर्वजन्म के संस्कार हैं। क्योंकि पहले जन्म में तुम विन्ध्याचल निवासी भील थे और मनोरमा तुम्हारी भीलनी पत्नि। वह भील अपने पापों के कारण से अगले जन्म में कुत्ता हुआ। कुत्ता जिनालय में मरने के कारण उसका जन्म ग्वाले के यहाँ पुत्ररुप में हुआ। एक बार उस ग्वाले के पुत्र ने एक सरोवर से एक सहस्र पत्र कमल तोड़ा उसी समय आकाशवाणी हुई कि इस कमल
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