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विंशतितम सर्ग -
भगवान् महावीर स्वामी ने अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसलिए वह सर्वज्ञ कहे जाते हैं। मनुष्यों को सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए महावीर द्वारा प्रचलित स्यादवाद के मार्ग को अपनाना चाहिए। तभी मुक्ति संभव है। एकविंश सर्ग -
शरद् काल में भगवान् महावीर स्वामी ने कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को एकान्त वास किया और रात्रि के अन्तिम समय में पावानगर के उपवन में उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्याग कर मोक्ष प्राप्त किया। भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष प्राप्त करने के पश्चात् उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को उनका स्थान प्राप्त हुआ। द्वाविंश सर्ग -
भगवान् महावीर के मोक्ष प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने संसार के कल्याण के लिए जो उपदेश दिया था, काल के प्रभाव से उसकी दशा शोचनीय हो गयी। श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय तक जैन धर्म की गंगा एक प्रवाह रुप से बहती रही किन्तु भद्रबाहु स्वामी के समय में पड़े 12 वर्ष के महान् दुर्भिक्ष के पश्चात् वह धारा दो रुप में विभक्त हो गयी। पहली दिगम्बर सम्प्रदाय, दूसरी श्वेताम्बर सम्प्रदाय। अनेक सम्प्रदाय तथा उपसम्प्रदाय बनने के कारण महावीर स्वामी के उपदेश का यथोचित रुप से पालन नहीं हो सका। जिन बुराईयों से बचने के लिए महावीर स्वामी ने उपदेश दिया था, वे बुराइयाँ जैनियों में प्रकट होने लगी। जैन धर्म का संचालन जैनी लोगों से निकलकर क्षत्रिय वैश्य लोगों के हाथों में आ गया, जिसके कारण जैन धर्म एक जाति या सम्प्रदाय वालों का धर्म माना जा रहा है।
इतना सब होने पर यह नहीं जानना चाहिए कि जैन मतावलम्बियों का धरा पर अभाव हो गया है। आज भी अनेक जितेन्द्रिय महापुरुष है जिनका जीवन दूसरों के लिए दुःखदायी नहीं वरन् सबका कल्याण करने वाला ही है।
भगवान् महावीर स्वामी को हम प्रणाम करते है और हमारी हार्दिक इच्छा है कि उनकी कीर्ति सदा वसुन्धरा पर बनी रहे।
जैन धर्म का सब और प्रसार हो जिससे मनुष्य अपने कर्तव्य मर्ग पर चले, समस्त लोग कर्मठ बने और धर्म के अनुकूल चले। ऐसी कवि की भावना है। सुदर्शनोदय - प्रथम सर्ग -
भारत वर्ष में तिलक के समान शोभायमान होने वाला, आर्यावर्त है।