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________________ कि सबको समान अधिकार प्राप्त है। कोई किसी से छोटा या बड़ा नहीं है। जो मनुष्य दूसरे का सम्मान करता है और उसकी छोटी बात को बड़ी समझता है वास्तव में वही मनुष्य है। अतएव मानव मात्र का सम्मान करके, आत्मोत्थान के मार्ग की ओर अग्रसर होना चाहिए। दूसरों के दोष दर्शन के समय मौन धारण करना चाहिए। और उनके गुणों को ईर्ष्यारहित होकर अपनाना चाहिए। मनुष्य को अपने ज्ञान और धन पर कभी घमण्ड नहीं करना चाहिए। उच्च नीच का व्यवहार जाति और कुलाश्रित न मानकर गुण और कर्माश्रित मानना चाहिए। पुरुष को दृढ़, आत्मविश्वासी, सत्यनिष्ठ, निर्भीक एवं पाप रहित मन वाला होना चाहिए। संसार के द्वन्दों पर विजय प्राप्त करने वाला पुरुष जितेन्द्रिय होकर जिन कहलाता है। उसका अपनी स्थिति के अनुसार शुभ आचरण ही जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध है। अष्टादश सर्ग - __ भगवान् महावीर स्वामी ने मनुष्यों को कष्टों से पार करने के अनेक उपाय बताये हैं। काल की महत्ता को बताया है कि समय जो राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा। समय के प्रभाव से जब सतयुग, त्रेतायुग में परिणत हुआ तो अव्यवस्था आ गयी जो सतयुग में सुविधाएँ थी वह त्रेतायुग में नहीं थी। यह जो अव्यवस्था फैल रही थी उस अव्यवस्था को नियन्त्रित करने के लिए बसुन्धरा पर चौदह कुलकरों ने जन्म लिया। जिनमें नाभिराय पहले थे। इनकी स्त्री का नाम मरुदेवी था। इन्होंने आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव को पुत्र रुप में प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव ने अनेक प्रकार से लोगों का कष्ट दूर किया। उन्हें जीवन यापन का उपदेश दिया। ऋषभदेव ने पुरुषों को 72 कलाओं और स्त्रियों को 64 कलाओं को सिखाया। गृहस्थ धर्म का पालन करने के पश्चात् ऋषभदेव ने सन्यास ग्रहण किया और लोगों को धर्म के प्रति प्रेरित किया। ऋषभदेव के पश्चात् द्वापर युग में अजितनाथ आदि तेईस तीर्थङ्कर और भी हुए जिन्होंने ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रचार - प्रसार किया। एकोनविंश सर्ग - इस सर्ग में अनेकान्तवाद, स्यादवाद, और उसके सात भंगों का वर्णन किया गया है। कोई भी पदार्थ विनष्ट नहीं होता है बल्कि नवीन रुप धारण करता है। सभी पदार्थ अनादिकाल से अपने कारणों से उत्पन्न होते आ रहे है। अतः इसका कोई कर्ता सृष्टा या नियन्ता ईश्वरादिक नहीं है। ४22288888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888889390000000000000000छछछछछछछ 55066065804268680४ E O Yaawww १७8888888888888888888888888888888888888888888888888 303200303603
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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