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________________ ध्यान संसार की शोचनीय स्थिति की ओर गया। आज संसार में हिंसा, स्वार्थ, परायणता, व्यभिचार, अधर्म, दुर्जनता आदि बुराइयों से लिप्त संसार की रक्षा करने का भगवान ने निश्चय किया। तभी पृथ्वी पर शरद ऋतु का आगमन हुआ। शीत के प्रताप से प्रत्येक व्यक्ति अति शोचनीय दशा को प्राप्त हो रहा दशम सर्ग - संसार की क्षणभङ्गुरता को देखकर वैराग्य भावना का उदय होता है और एक दिन वे घर छोड़कर वन में जाकर प्रव्रजित हो जाते हैं। भगवान वन जाकर वस्त्राभूषण त्याग कर, केशों को उखाड़ कर मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को दिगम्बरी दीक्षा ले लेते हैं और मौन व्रत धारण कर लेते हैं। दीक्षित होने के पश्चात् वीर प्रभु के मन में मनः पर्यय नाम का ज्ञान दीपक का उदय होता है। उन्होंने अपना स्वतन्त्र मार्ग चुना। अपना वीर नाम साथ करने के लिए तपस्या काल के समय कठिन से कठिन विपत्तियों का सामना किया और सब पर विजय प्राप्त की। एकादश सर्ग - भगवान् ने ध्यानावस्था में ही अवधि ज्ञान से अपने पूर्व जन्मों के वृत्तान्तों को जान लिया। सबसे पहले भील थे उसके पश्चात् आदितीर्थङ्कर ऋषभदेव के पौत्र मरीचि के रूप में जन्म लिया। मरीचि ही स्वर्ग का देव बना फिर ब्राह्मण के कुल में जन्म लेकर अनेक कुयोनियों से जन्म लेता हुआ एक बार शाण्डित्य ब्राह्मण और उसकी पाराशरिका नाम की स्त्री का स्थावर नाम का श्रेष्ठ पुत्र हुआ। परिव्राजक होकर तपस्या के प्रभाव से माहेन्द्र स्वर्ग का भोग किया। उसके बाद राजगृह नगर में विश्वमूर्ति ब्राह्मण और उसकी जैनी नामक स्त्री के विश्वनन्दी नाम का पुत्र हुआ। विश्वनन्दी महाशुक्र नामक स्वर्ग में गया। उसके पश्चात् विश्वनन्दी पोदनपुर के राजा प्रजापति और रानी मृगावती का त्रिपृष्ठ नामक पुत्र हुआ। इसके बाद विश्वनन्दी को नरक में जाना पड़ा। इसके पश्चात् वह सिंह योनि को प्राप्त हुआ। यह नारकी सिंह बनकर नरक गया। फिर सिंह रूप में जन्मा उस सिंह को किसी मुनिराज ने उसका पूर्व वृत्तान्त बता दिया। सिंह योनि के पश्चात् वब अमृतभोजी देव हुआ। इस देव ने कनकपुर के राजा के पुत्र के रुप में जन्म लिया। मुनिवेश धारण करने के पश्चात् यह राजकुमार लान्तव स्वर्ग में पहुँचा। फिर इस राजकुमार ने साकेत नगर के राजा बजषेण और शीलवती रानी के पुत्र रुप में जन्म ग्रहण किया। अन्त में तपस्या करते हुए महाशुक्र नामक स्वर्ग को गया। इसके पश्चात् पुष्कल देश की पुण्डरीकिणी पुरी के सुमित्र राजा और सुव्रता रानी का प्रियमित्र 5 6 8 89390000000000000000048080PMAMMAR 20000000000000000000000000000000000%8884005000
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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