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ने वर्धमान नामक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र की उत्पत्ति होने पर रानी अत्यधिक हर्षित हुई। शिशु के कोमल शरीर से सुगन्धि निःसृत हो रही थी। सप्तम सर्ग -
'भगवान् ने जब जन्म लिया, उस समय सभी दिशाओं में आनन्द का संचार हो गया। इन्द्र का सिंहासन कम्पायमान हो उठा। भगवान् के जन्म का समाचार जानकर इन्द्र ने दूर से ही भगवान् जिनेन्द्र देव को प्रणाम किया और सुर - असुरों सहित कुण्डनपुर को प्रस्थान किया। कुण्डनपुर की सभी देवताओं ने तीन बार प्रदक्षिणा की ओर गोपुर की अग्रभूमि पर उपस्थित हुए। इन्द्राणी ने रानी के प्रसूति गृह में प्रवेश किया। उन्होंने एक माया निर्मित शिशु को माता के पार्श्व में सुला दिया और जिन भगवान् को इन्द्र को सौंप दिया।
जिन भगवान् को देखकर इन्द्र ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। और ऐरावत हाथी पर बिठा कर जैन मन्दिरों से युक्त सुमेरु पर्वत के लिए प्रस्थान किया। पर्वतराज सुमेरु ने जिन भगवान् को शिर पर धारण किया। देवता लोगों ने क्षीर सागर से भगवान् का अभिषेक किया। अभिषेक करने के पश्चात् भगवान् के शरीर को पोंछकर उनके कोमल शरीर को सुन्दर सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया। इस प्रकार देवताओं ने बड़े उत्साह के साथ भगवान् का जन्म महोत्सव मनाया और फिर ले जाकर उन्हें उनकी माता त्रिशला देवी की गोद में सौंप दिया। वे सभी देवता ताण्डव नृत्य से पुरवासी लोगों को आनन्दित करके अपने निवास स्थान को चले गये। अष्टम सर्ग -
राजा सिद्धार्थ ने अपने पुत्र का जन्म महोत्सव बड़ी धूमधाम से सम्पन्न किया। पुत्र के शरीर की बढ़ती हुई कान्ति को देखकर राजा सिद्धार्थ ने अपने पुत्र का नाम श्री वर्धमान रखा। बालक वर्धमान अपनी महान् उदार चेष्टाओं से सम्पूर्ण जनसमुदाय को हर्षित करने लगे।
भगवान् ने धीरे - धीरे बाल्यावस्था को बिताकर युवावस्था में पदार्पण किया। पुत्र को युवावस्था में देखकर पिता ने उनके विवाह के लिए कन्या देखने का निश्चय किया। पिता के विवाह प्रस्ताव को सुनकर उन्होंने विवाह न करने का निश्चय बताया। पिता के बार - बार आग्रह करने पर उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने की अपनी इच्छा प्रकट की तथा आजीवन ब्रह्मचारी रहने का अपना निश्चय बताया। पुत्र की ब्रह्मचर्य व्रत के प्रति इतनी निष्ठा देखकर राजा सिद्धार्थ ने हर्षित होकर उनके सिर पर हाथ रखकर यथेच्छ जीवन यापन करने की अनुमति दे दी। नवम सर्ग -
विवाह करने का प्रस्ताव स्वीकार न करने के पश्चात् भगवान् का