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नाम का पुत्र हुआ। अन्त में वह सहस्त्रार स्वर्ग में जन्मा। पुनः पुष्कर देश की छत्रपुरी नगरी के राजा अभिनन्दन और रानी वीरमती का नन्द नाम का पुत्र हुआ। इस जन्म में दैगम्बरी दीक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग का इन्द्र बना। इसी इन्द्र ने अब इस कुण्डनपुरी में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान नामक राजकुमार के रुप में जन्म लिया है।
___अपने पूर्व जन्मों के वृत्तान्त को महावीर ने स्वयं किए गए पाप का फल बताया। भगवान् विचारते है कि मुझे स्व राज्य अर्थात् आत्मीय स्वरुप की प्राप्ति के लिए परिजनों से असहयोग ही नहीं बल्कि दुर्भावों का बहिष्कार भी करना चाहिए। तभी मेरा स्वराज्य प्राप्ति के लिए किया गया सत्याग्रह सफल होगा। द्वादश सर्ग -
__ आत्मतत्त्व का चिन्तन करते हुए महावीर भगवान् ग्रीष्म ऋतु में पर्वत शिखर पर महान् योग से अपने कर्मो की निर्जरा करने में संलग्न हो रहे थे। वर्षा ऋतु में वृक्षों के नीचे खड़े होकर कर्म मल गलाते रहे और शीतकाल में चौराहों पर रात - रात भर खड़े रह कर ध्यान किया करते थे उन्होंने विचार किया कि पीड़ा आत्मा को नहीं ज्ञान रहित शरीर को कष्ट पहुँचाती है। समय - समय पर भगवान् ने एकमासिक और चातुर्मासिक उपवास भी किये। आत्मतत्व को जानकर संसार को पापों से दूर करने के लिए उग्र तपस्या करते हुए साढ़े बारह वर्ष व्यतीत होने पर भगवान् महावीर वैशाख मास की शुक्ला दशमी को भगवान् को कैवल्य विभूति की प्राप्ति हुई। इससमय उनके चार मुख सुशोभित होने लगे। उनके अन्दर सभी विधाओं का प्रवेश हो गया। इसी उल्लासमय वातावरण में इन्द्र ने समवसरण नामक सभामण्डप का निर्माण किया। इसी समवसरण सभामण्डप में भगवान् महावीर ने मुक्ति मार्ग का उपदेश दिया। त्रयोदश सर्ग -
समवसरण सभा के मध्य भाग में स्थित कमलासन पर भगवान् चार अङ्गल अन्तरीक्ष पर विराजमान हुए। उनके समीप आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए और देव कृत चौदह अतिशय भी प्रकट हुए। देवतागण दुन्दुभि बजा रहे थे और भगवान् महावीर अपनी मधुरवाणी से सबके कर्ण को अभिषिक्त कर रहे
थे।
भगवान् के इस दिव्य रुप से प्रभावित वेद वेदांग का ज्ञाता इन्द्रभूति नामक ब्राह्मण वहाँ आया। उसके मन में महावीर भगवान का वैभव देखकर आश्चर्य हुआ और अज्ञानता वश मन में तर्क वितर्क करने लगा। अन्त में उसने कहा - हे देव मुझे सत्य का ज्ञान कराने की कृपा करें और ऐसा
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