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________________ रात्रि के अन्तिम समय में रानी ने सोलह स्वप्नों को देखा । प्रातः कालीन स्तुतियों से उनकी निद्रा टूटी, प्रातःकालीन कृत्यों से निर्वृत्त होकर अपनी सखियों के साथ अपने स्वप्न सुनाने और उन स्वप्नों का अभिप्राय जानने की इच्छा से वह अपने पति राजा सिद्धार्थ के पास गई। रानी ने राजा के पास बैठकर अपने स्वप्नों को राजा को सुनाया । राजा ने रानी के स्वप्नों का फल इस प्रकार बताना तुमने सर्वप्रथम जो ऐरावत हाथी देखा है, इसका तात्पर्य है कि तुम्हारा पुत्र मदस्रावी गज के समान महादानी होगा । - दूसरे स्वप्न में तुमने जो वृषभ देखा है, उसके समान तुम्हारा पुत्र धर्म की धुरी को धारण करने में समर्थ होगा । तीसरे स्वप्न में जो तुमने सिंह देखा है, उसके समान उन्मत्तों एवं मुखें के गर्व का दलन करने वाला होगा । चौथे स्वप्न में गजलक्ष्मी देखने का फल है कि तुम्हारा पुत्र इन्द्रादि देवताओं द्वारा सुमेरु पर्वत के शिखर पर अभिषिक्त होगा । पांचवें स्वप्न में जो तुमने गुंजन करते हुए भ्रमरों से युक्त दो मालाएँ देखी है वे यह प्रकट करती है कि तुम्हारा पुत्र अपनी यशः सुरभि से जगत मण्डल को सुरभित करने वाला और योग्य व्यक्तियों से सम्मानित होगा । छठें स्वप्न में तुमने चन्द्रमा देखा है जो इस बात का सूचक है कि तुम्हारा पुत्र सभी कलाओं में पारंगत होगा और अपने धर्म रुप अमृत से जगत का सिंचन करेगा । सातवें स्वप्न में सूर्य देखने का फल है कि तुम्हारा पुत्र लोगों के हृदय कमल का विकासक, अज्ञान रुप अन्धकार का नाशक एवं परम प्रतापी होगा । आठवें स्वप्न में तुमने जल से परिपूर्ण दो कलश देखे हैं सो तुम्हारा पुत्र लोगों का परम कल्याण करने वाला एवं तृष्णातुर लोगों के लिए अमृत रुप सिद्धि को देने वाला होगा । नवें स्वप्न में तुमने जल में क्रीडा करती हुई दो मछलियाँ देखी है उसके समान तुम्हारा पुत्र अपनी सुन्दर चेष्टाओं से स्वयं प्रसन्न रहकर जनता को हर्षित करेगा । दसवें स्वप्न में तुमने आठ हजार से अधिक कमलों से युक्त सरोवर देखा है। उसके समान तुम्हारा पुत्र 1008 लक्षणों से युक्त होगा एवं लोगों के दुःख व पाप का नाशक होगा। ग्यारहवें स्वप्न में तुमने समुद्र देखा है उसका फल यह होगा कि तुम्हारा पुत्र समुद्र के समान धीर गम्भीर, नवनिधियों और केवल ज्ञान जनित नव लब्धियों का धारक होगा । 53
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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