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________________ उसके मर जाने का समाचार सारे नगर में फैल गया । गुणपाल इस समाचार को सुनकर बहुत खुश हुआ किन्तु घर जाकर सोमदत्त को जीवित देखकर व अपने पुत्र का सामाचर सुनकर दुःखी हो गया । षष्ठ लम्ब सोमदत्त के स्थान पर महाबल के मर जाने से गुणपाल दु:खी रहने लगा। उसको चिन्तित देखकर पुत्र शोक से दुःखी मन वाली गुणश्री ने अपने पति से दुख का कारण पूछा। पहले तो गुणपाल ने अपनी चिन्ता का कारण नहीं बताया लेकिन अपनी पत्नी के बहुत आग्रह करने पर सब वृत्तान्त बता दिया। पहले तो गुणश्री अपने पति के इस निर्मम निर्णय का विरोध करती रही पर बाद में गुणपाल की बातों में आकर सोमदत्त को मारने का दायित्व स्वयं ही ले लिया । एक दिन उसने सबके लिए खिचड़ी बनायी और सोमदत्त को मारने के लिए विष से युक्त चार लडडू बना दिये । इतने में ही उसे शोच जाने की आवश्यकता हुई तो उसने अपनी पुत्री को रसोई के कार्य में लगा दिया तथा स्वयं जंगल को चली गयी। इतने में गुणपाल रसोई की ओर आया और विषा से बोला कि मुझे आवश्यक कार्य से शीघ्र जाना है भूख भी लग रही है। यदि खाने में विलम्ब है तो जो कुछ पहले तैयार हो वह खिला दो । विषा ने कहा जब तक भोजन तैयार नहीं होता है तब तक आप यह लड्डू खा लीजिए। उसने अपने पिता को दो लड्डू दे दिये। गुणपाल ने जैसे ही लड्डू खाये वह गिर पड़ा । विषा के चीखने चिल्लाने को सुनकर पास पड़ोसी आये जब तक गुणपाल के प्राण निकल गये । गुणश्री ने आकर जब अपने पति को मरा देखा तो दुखी मन से अपने पति के दुष्कृत्यों के लिए पश्चाताप करने लगी । और बचे हुये लड्डू को खाकर वह भी मर गयी । सप्तम लम्ब -- गुणपाल को राज्यसभा में न देखकर राजा वृषभदत्त ने उसके विषय में मन्त्री से पूछा । मन्त्री ने कहा कि जिस विषयुक्त भोजन को खिलाकर गुणपाल सोमदत्त को मारना चाहता था वही अन्न वह धोखे से खाकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। राजा ने सोमदत्त को बुलाया और आसन पर बिठा दक कुशल समाचार पूछा । सोमदत्त ने अपने सास, ससुर के मृत्यु पर हार्दिक दुःख प्रकट किया। राजा ने सोमदत्त के इस दुख के प्रति सहानुभूति प्रकट करके अपनी पुत्री से विवाह करने का आग्रह किया । सोमदत्त ने विवाह के आग्रह को स्वीकार कर लिया । 5.1
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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