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________________ आचार्य ज्ञानसागर का कृतित्व - स्व. आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज इस सदी के एक उत्कृष्ट साहित्य सृष्टा थे। उन्होंने संस्कृत एवं हिन्दी भाषा के अनेक महाकाव्य, चरित्रप्रधान काव्य, मुक्तक काव्य आदि लिखे। साहित्य जगत में उनका अत्यन्त समादर हुआ। उनकी रचनाओं, उक्तिवैचित्र्य, रस परिपाक, अलंकार छटा, प्रसाद गुण आदि ने समीक्षकों का मन मोह लिया। - सल्लेखनाधारी संकल्प करता है कि जो कुछ भी मेरा दुश्चरित है, उस सभी का मैं मन, वचन, काय से त्याग करता हूँ। आत्मा का त्याग इसलिए नहीं करता, क्योंकि मेरी आत्मा ही स्पष्ट रुप से ज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान रुप दर्शन में अथवा सामान्य सत्ता के अवलोकन रुप दर्शन में है। सल्लेखना शब्द सत् और लेखना इन दो शब्दों के संयोग से बना है। सत् का अर्थ सम्यक् और लेखना का अर्थ तनूकरण अर्थात् कृश करना है। बाह्य शरीर और आभ्यन्तर कषायों के कारणों को निवृत्ति पूर्वक क्रमशः भली प्रकार क्षीण करना सल्लेखना है। . . . शरीर इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले समस्त रसयुक्त आहारों का त्याग कर नीरस आहार करते हुए शरीर को क्षीण करना शरीर सल्लेखना है। सल्लेखना. जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है। जो मनुष्य मरण काल में सल्लेखना व्रत ग्रहण करता है, वह लोक के समस्त सारभूत सुखों को प्राप्त करता है। सल्लेखना करने वाला साधक धर्मरुप अमृत का पान करने के कारण संसार के सभी दुखों से मुक्त हो जाता है तथा आत्मिक अपरिमित सुखों को प्राप्त करता है। (सल्लेखना दर्शन, डॉ. रमेश चन्द्र जैन). आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने अपनी अधिकांश रचनाएं गृहस्थावस्था में लिखी। उस समय वह पण्डित भूरामल शास्त्री जी के नाम से जाने जाते थे। उनका व्यक्तित्व स्वनिर्मित था। जब वह मात्र दस वर्ष के थे तब उनके पिता का देहान्त हो गया था। सबसे बड़े भाई भी दो वर्ष ही बड़े थे। ऐसी स्थिति में अपना दायित्व उन्हें स्वयं संभालना पड़ा और उन्होंने उनका पूर्णरुप से निर्वाह किया। परम पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के ग्रन्थों की सूचीसंस्कृत भाषा में - 1. दयोदय जयोदय वीरोदय २०००००००-22288058000380868600000000000000065280899398608 4 6
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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