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________________ 54 वर्ष की आयु में ये पूर्ण रुप से गृहत्याग कर आत्म कल्याण हेतु जैन सिद्धान्त के गहन अध्यन में लग गये। सन् 1955 में 60 वर्ष की आयु में आचार्य वीरसागर जी महाराज से ही मनसुरपुर (रेनवाल) में क्षुल्लक दीक्षा' लेकर ज्ञानभूषण के नाम से खनियाँ (जयपुर) में मुनि दीक्षा अंगीकार कर 108 मुनि श्री ज्ञानसागरजी के नाम से विभूषित हुए। . सन् 1965 में मुनि श्री ज्ञानसागरजी के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष है। इस वर्ष आपने अजमेर नगर में चातुर्मास किया। सन् 1972 में 22 नवम्बर को उन्होंने अपने सुयोग्य शिष्य श्री विद्यासागरजी को अपना आचार्य पद सौंपकर संलेखना व्रत ग्रहण किया और 1 जून 1973 को प्रातः 10 बजकर 50 मिनट पर नसीराबाद नगर में समाधि मरण द्वारा हमारे आलोच्य महाकवि ज्ञान सागर जी ने अपने पार्थिव शरीर को त्याग दिया। संलेखनाव्रत का अर्थ - मनुष्य जीवनभर सुख की पूर्ति के लिए दौड धूप में लगा रहता है। सुख के लिए अनेक प्रकार के कष्ट झेलता है किन्तु जब मौत आती है तो उसे पता ही नहीं चलता। बिना तैयारी के ही मौत उसे अज्ञात की ओर ले जाती है। बहुत कम ऐसे साधक होते है जो जीवन भर मौत का सामना करने की साधना करते हैं। जब उन महापुरुषों को यह आभास होने लगता है यह नश्वर शरीर अब ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है. तब वे समस्त वासनाओं और परिग्रह तथा सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर अन्न जल का परित्याग कर मृत्यु का सामना करने का साहस जुटाते हैं। आत्म साधना में लीन ऐसे तपस्वियों के लिए मृत्यु अमरता का सन्देश लेकर आती है। वह उस अनन्त सुख की प्राप्ति में सहायक होती है जिसे पाकर कभी दुःखी नहीं होता है। इस प्रकार की मृत्यु की साधना को जैन धर्म में संलेखना व्रत कहते हैं। वास्तव में त्याग, तपस्या, उदारता, साहित्य सर्जना आदि गुणों की साक्षात् मूति महाकवि आचार्य मुनि श्री ज्ञान सागर जी महाराज एवं उनके कार्य अनुकरणीय हैं। 1. पं. हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री, बाहुबलीसन्देश, पृ. 13 2. श्री इन्द्र प्रभाकर जैन, वीरोदय मासिक प्रपत्र पृ. 1 3. प्रभुदयाल जैन, बाहुबलीसन्देश, पृ. 15 4. पं. चम्पालाल जैन, बाहुबलीसन्देश में से।
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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