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वक्रोक्तिः प्रसिद्धामिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवाभिधा
यह कैसी होती है ? वैदग्ध्यभडगीर्भणितिस्वरुप होती है अर्थात् काव्य कुशलता की विच्छित्ति द्वारा किये कथन को वक्रोक्ति कहते हैं और यह कथन शोभातिशयकारी होने के कारण एकमात्र अलंकार है
वक्र ता
शब्दार्थो पृथगवस्थितो केनापि व्यतिरिक्तेनालडकरणेन योज्येते किन्तु वैचित्रयोगितयाभिधानमेवा नवोरलङकार: तस्यैव शोभातिशयकारित्वात् ।
आचार्य कुन्तक ने कवि व्यापार की वक्रता के छः भेद किये है और इन छः भेदों के भी अवान्तर भेद किये हैं
1. वर्णविन्यास वक्रता 2. पदपूर्वार्द्धवक्रता
क. रूढिवैचित्र्य
ख. पर्यायवक्रता
घ. विशेषणवक्रता
च. पदमध्यान्तर्भूत प्रत्ययवक्रता
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ग. उपचारवक्रता
ङ. संवृतिवक्रता
छ. वृत्तिवैचित्र्यवक्रता झ. लिङगवैचित्रवक्रता
भाववैचित्र्यवकखता
क्रियावैचित्रयवक्रता
3. पदपरार्थ अथवा प्रत्ययवक्रता
क.
ग. सडख्यावक्रता
ङ. उपग्रहवक्रता
4. (उपसर्ग निपालजनित पदवक्रता) वाक्यवक्रता एवं अलंकार
5. प्रकरणवक्रता
6. प्रबन्धवक्रता
कालवेचित्रयवक्रता ख. कारकवक्रता
घ. पुरुषवक्रता
छ. प्रत्ययविहितप्रत्यय वक्रता
अलौकिक चमत्कार को उत्पन्न करने वाले वैचित्र्य की सिद्धि करने के लिए अर्थात् असामान्य आहलाद को उत्पन्न करने वाली विचित्रता की सिद्धि के लिए कुन्तक ने वक्रोक्तिजीवितं काव्य की रचना की, यह उनका प्रयोजन
था
चमत्कारो वितन्यते चमत्कृतिर्विस्तार्यते, हलादः पुनः पुनः क्रियत इत्यर्थः । केन काव्यामृतरसेन । काव्यमेवामृतं तस्य रसस्तदास्वादस्तदनुभव स्तेन । क्वेत्यभिदधाति अन्तश्चेतसि । कस्य तद्विदाम् तं विदन्ति जानन्तीति तद्विदस्तज्ज्ञास्तेषाम् । कथम् चतुवर्गफलास्वादमप्यतिवक्रम्य । चर्तुवर्गस्य धर्मादेः फलं तदुपभोगस्तस्यास्वादस्तद नुभवस्तमपि प्रसिद्धा तिशयमतिक्रम्य विजित्य पस्पाशप्रायं संपाद्य ।
1. वक्रोक्तिजीवितम् प्रथम उन्मेष. पृ. सं. 14
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