________________
2. चमत्कारितर(अर्थचित्र और गुणीभूत व्यङग्य) 3. चमत्कारितम (व्यंग्यप्रधान)
1729 ई. में हरिप्रसाद ने काव्यालोक नामक अलंकारग्रन्थ सात परिच्छेदों में लिखा है। इन्होंने चमत्कार को काव्य की आत्मा मानकर अन्य प्राचीन मतों की अवहेलना की है। अतः इनकी कल्पना का एक ही मत है -
विशिष्टशब्दरूपस्य काव्यस्यात्मा चमत्कृतिः।
उत्पत्तिभूमिः प्रतिभा मनागत्रोपपादितम्॥ पण्डितराज जगन्नाथ ने रसगंगाधर ग्रन्थ में चमत्कार के ऊपर ही काव्य का चमत्कारी तथा रमणीय लक्षण प्रस्तुत किया है। उनकी दृष्टि में रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य होता है। रमणीय अर्थ वह है जिसके ज्ञान से, जिसके बार - बार अनुसन्धान करने से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है। अलौकिक आनन्द का ही दूसरा नाम चमत्कार है। अतः चमत्कार सम्पन्न अर्थ की शब्दतः प्रतिपादन करने वाली वस्तु का नाम कविता है।
रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्। रमणीयता च लोको त्तारालादजनकज्ञानगोचरता। लोकोत्तरत्वं च आह्लादगतः चमत्कारा परपर्यायः अनुभवसाक्षिको जातिविशेषः।
कुन्तक काव्य के चमत्कारवादी आचार्य हैं परन्तु उनका चमत्कारवाद साधारण कोटि के चमत्कारवाद से कहीं अधिक उपर उठा हुआ है। उनकी वक्रोक्ति इसी चमत्कृति का अपर पर्याय है। व्यापक अर्थ में रस, औचित्य, ध्वनि, वक्रोक्ति समस्त काव्य सार ही चमत्कार रुप है।
चमत्कार पाठकों के हृदय को अनुरजित करने में समर्थ होता है। इसमें जो लोग मनोरंजन को ही काव्य का लक्ष्य समझते हैं वे कविता में चमत्कार ही ढूंढा करते हैं इसमें आश्चर्य ही क्या ? कुन्तक का कहना है कि यद्यपि अलंकृत शब्द और अर्थ मिलकर काव्य होते हैं किन्तु जब हम आवापोदाप बुद्धि से अलंकार्य और अंलकार का विभाग कर लेते है तो उस दशा में शब्द
और अर्थ अलङकार्य होते हैं तथा उनका (उन दोनों का) अलङकार केवल एक वक्रोक्ति ही होती है।
तयो द्वित्वसङख्याविशिष्ट योख्यलंकृ ति पुनरै कै व यथा द्वावप्यलडक्रियेते। कुन्तक का वक्रोक्ति का स्वरूप -
वक्रोक्ति शास्त्र तथा लोक प्रसिद्ध उक्ति से अतिशायिनी विचित्र उक्ति को कहते है -
26
000000000000023
8888636305000000000000088SANSARNAMA
388888888560000000002