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________________ चमत्कारी वितन्यते अर्थात् चमत्कृति (रसास्वाद रूप अलौकिक आनन्द) विस्तार किया जाता है। बार - बार आनन्दानुभूति कराई जाती है, यह हुआ। जिसके द्वारा ? काव्यामृतरस के द्वारा। काव्य ही है अमृत जो उसका रस, उसका आस्वाद अर्थात् उसका अनुभव उसके द्वारा कहाँ (चमत्कार का विस्तार होता है) यह कह सकते हैं, हृदय में किसके (हृदय में) ? तद्विदों के। उस (काव्यरल) को जानते हैं जो वे हुए तद्विद् उसको जानने वाले, उनके (हृदय में चमत्कार का विस्तार करता है) कैसे चमत्कार को पैदा करता है ? चर्तुवर्ग के फलास्वाद का भी अतिक्रमण करके। चर्तुवर्ग अर्थात् धर्मादि (धर्म, अर्थ, काम, एवं मोक्ष रुप पुरुषार्थ का फल अर्थात् उसका उपभोग, उसका आस्वाद अर्थात् उसका अनुभव, प्रसिद्ध उत्कर्ष वाले (चर्तुवर्ग या फलास्वाद) अतिक्रमण करके उसको भी जीतकर अतः उसे नि:सार सा बना करके चमत्कार को उत्पन्न करता है। इस प्रकार से कुन्तक भी इस व्यापक चमत्कार काव्य के उपासक हैं। क्षेमेन्द्र की प्रतिभा काव्य के नवीन तत्त्वों की ओर स्वतः प्रसूत होती थी उन्होंने चमत्कार का वर्णन अपने काव्य कविकण्ठाभरण की तृतीय सन्धि में किया है। इस चमत्कारतत्त्व का गम्भीतत्व चिन्तकर एवं समीक्षक आचार्य क्षेमेन्द्र ने सर्वप्रथम वैज्ञानिक वर्गीकरण किया है। उनकी दृष्टि में चमत्कार ही काव्य का मुख्य तत्त्व है, जिसके बिना न तो कवि में कवित्व सम्भव है और न काव्य में काव्यत्व। क्षेमेन्द्र ने औचित्यविचारचर्चा में औचित्य चमत्कार का निरूपण करते हुए कहा है - औचित्यस्य चमत्कारकारिणश्चारुचर्वणे। रस जीवितभूतस्य विचारं कुरुतेऽधुना॥ औचित्य रस सिद्धकाव्य की आत्मा है तथा काव्य के औचित्य चमत्कार उत्पन्न करता है। औचित्य रस का जीवन है। रस और औचित्य का गहरा सम्बन्ध है - औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्। - क्षेमेन्द्र की दृष्टि से काव्यगत पद, वाक्य, प्रबन्धार्थ, गुण, अलंकरण, रस, क्रियापद, कारक, लिंग, वचन, विशेषण, उपसर्ग, निपाल, काल देश, कुलव्रत, तत्त्व, अभिप्राय, स्वभाव, सारसंग्रह, प्रतिभा, अवस्था विचार, नाम, आशीर्वचन और काव्यांगों में औचित्य रहता है। साधारण व्यक्ति चमत्कार शब्द से आश्चर्य चकित करने वाले शब्द (38)
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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