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________________ . . क्षेमेन्द्र ने काव्य जगत् में आत्म पदवी प्रदान की है। क्षेमेन्द्र का यह गुणाधिक कविकण्ठाभरण नौसिखुए कवियों का सच्चा पथप्रदर्शक है ऐसा कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा। चमत्कार का स्वरूप - पद का अर्थ प्रतिभा में तत्काल उल्लिखित होने वाले किसी स्वभाव से स्फुरित होता है तदनन्तर प्रकृति सन्दर्भ के अनुकूल किसी उत्कर्ष के द्वारा उसका स्वरुप आच्छादित हो जाता है और तब वह कवि की अभिलाषा के वश में आकर अभिधेय की योग्यता प्रदान करता है। उस विशेष अर्थ के प्रतिपादन करने वाले शब्दों के द्वारा प्रकट किये जाने पर ही वह चेतन सहृदयों के हृदय में चमत्कार उत्पन्न करता है। अर्थ जिस प्रकार भावमय होता है शब्द उसी प्रकार भावमय होता है। रसमय शब्द तथा रसमय अर्थ का सामंजस्य समान हृदयवाले मित्रों के मिलन के समान आदरणीय और चमत्कारी होता है। चमत्कार शब्द का विवेचन करते हुए साहित्यशास्त्र में दो अर्थ दिये हैं - 1. आश्चर्य 2. काव्यास्वाद। परन्तु भाषा की दृष्टि से चमत्कार ध्वनि निर्मित शब्द है और जो चटपटी चीज खाने के समय हम जो जीभ से होठों को चाटते हुए जो चट चट ध्वनि उत्पन्न करते हैं उसी के आधार पर यह चमत्कार शब्द बना है। . इस मूल अर्थ का विस्तार होने पर इसका सामान्य अर्थ हुआ मधुर वस्तु के आस्वाद से चित्त का विस्तार या आनन्द और इसी अर्थ में साहित्यशास्त्र में यह अर्थ व्यवहृत होने लगा। .. .. चमत्कार का संकीर्ण अर्थ - . संकीर्ण अर्थ में चमत्कार का प्रयोग आश्चर्यरस उत्पन्न करने वाले काव्य साधन के लिए किया जाता है। नारायण पण्डित चमत्कारवादी है। उन्होंने आश्चर्य को समग्ररसों का मूल माना है। रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते। तस्मादुदभुवमेवाह कृती नारायणो रसम्॥ नारायण दास के अनुसार चमत्कार चित्त - विस्तार के रुप में अभिव्यक्त होता है। समस्त रसानुभूति चित्त - विस्तार की जननी होने के कारण चमत्कार रुपिणी होती है। इसका सबसे सुन्दर उदाहरण है - अद्भुत रस। यह तो चमत्कार का संकीर्ण अर्थ हुआ। चमत्कार को अनेक रूपों में व्यवहृत किया गया है। जैसे - रस, चमत्कार, हृदयता, चारुता, सौन्दर्य, विच्छित्ति आदि।
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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