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84. महात्मनामप्यनुशिष्यते धृतिरहो न यावद् विनिरेति संसृतिः। 23/34
जब तक संसार निवृत्त नहीं होता है तब तक महापुरुषों की भी आकांक्षा
अवशिष्ट रहती है। 85. अहो जगत्यां सुकृतैकसन्ततेरभीष्टसिद्धिः स्वमेव जायते। 23/35 __ पृथ्वी पर पुण्य की अद्वितीय परम्परा से वांछित अर्थ की सिद्धि स्वयमेव
- हो जाती है। 86. यथाङकुरोत्पादनकृद् धनागमः फलत्यहो किन्तु शरत्समागमः। 23/36
वर्षा ऋतु अंकुर उत्पन्न करती है परन्तु फल देता है शरद ऋतु का आगमन । 87. अहो सज्जनसमायोगो हि जगतामापदुद्धर्ता ।
सत्पुरुषों का समागम समस्त जीवों की आपत्ति दूर करने वाला होता है। 88. भवान्तरारिः स्वरितो च किन्तु महो जनाः सत्तपसा व्रजन्तु। 23/70
नमीचीन तप से मनुष्य उत्तम प्रभाव को प्राप्त होता ही है। 89. स्थाने मनः प्रण्यनं हि भवेन्महत्तवम्।
23/84 समुचित स्थान में मनका जाना ही महत्त्वपूर्ण होता है। 90. कस्य लब्धिर्न युगस्य दत्तिः।
24/88 लेना एक न देना दो। . 91. चिन्तामणि प्राप्य नरः कृतार्थः किमेष न स्याद्विदिताखिलार्थ। 24/94
चिन्तामणि रत्न को प्राप्त कर क्या मनुष्य कृतार्थ नहीं होता। 92. सुमानि सम्प्राप्य सुगन्धिमन्ति सौगन्ध्यमारान्नृशयं नयन्ति। 24/95
सुगन्धित पुष्प अपने संपर्क से मनुष्य के हाथ को सुगन्ध प्राप्त करा ही
देता है। 93. मुहरहो स्वदिते ज्वलिताधरः स्विदभिलाषपरो मरिची नरः। 25/23
चटपटा खाने का अभिलाषी मनुष्य ओठ के जलते रहने पर भी बार-बार मिर्च का स्वाद लेता है। 94. असुहतिष्वपि दीपशिखास्वरं शलभ आनिपतत्यपस म्बरम्। 25/24
पतिंगा प्राणघात करने वाली दीप शिखाओं पर बिना किसी प्रतिबन्ध के
शीघ्र ही आ पड़ता है। 95. शिरसि सन्निहिताश्छगलो बलावपि धृतोत्ति मुदा यवतण्डुलान्। 25/35
बलि के संकल्पित बकरा शिर पर रखे हुए जौ और चावलों को प्रसन्नता
से खाता है पर मृत्यु की ओर नहीं देखता। 96. अनयनस्य वटोवलनं पुनः कवलितं च शकृत्करिणा ततः। 25/68
अन्धा वटे बछड़ा खाय।
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