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जो शुद्ध स्वभाव वाले होते हैं वे प्राण देकर भी कृतज्ञता का अत्यन्त निर्वाह करते हैं ।
71. लोलुपानां तु कुतः प्रबुद्धिः
लोभी जीवों को विवेक कहाँ होता है ?
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72. नित्यं विभावमयदं । षविशोधनाय पडकेरूहस्य पुरतः शशिनीऽभ्युपायः । 20/10 अपने सदातन विरोध को दूर करने के लिए कमलों के आगे चन्द्रमा का ही उद्यम हो रहा हो ।
73. सर्वस्वमूल्यमिति तुल्यतयानिजस्य कुर्याच्छितं लघुमपीह जनः प्रशस्यः । 20/15 उत्तम मनुष्य शरण में आये हुए साधारण मनुष्य को भी स्वयं अपने समान कर लेता है ।
74. किं तत्र चाञ्चतु रुचिं चतुरस्य चेतः ।
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विचारशील मनुष्य का चित्त क्या रुचि कर हो सकता है अर्थात् नहीं ? 75. अर्केण बालामतिकर्कशेन किं मल्लिमालान्वयते कुशेन ।
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क्या अत्यन्त कठोर डाभ के द्वारा मालती की माला गूथी जाती है ? 76. मत्सी सरस्याश्रयिणी यदच्छया सा प्रेक्षते साम्प्रतमबुपृच्छया। मछली सरोवर में स्वेच्छानुसार चलती अवश्य है, पर वह पानी की आज्ञा से ही चलती है, उसका उल्लंघन कर नहीं चलती ।
77. समश्चविषमः सूक्तिरित्येषास्ति न वारिता ।
कभी मित्र भी शत्रु हो जाते हैं ।
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78. भाले विशाले दुरितान्तकाले भवन्ति भावा रमिणां रमासु। पाप कर्म का अन्त अर्थात् पुण्य कर्म का उदय होने पर स्त्रियों के विषय में पुरुषों के अनुकूल भाव होते ही हैं ।
79. विभवमयो रवसम्पदा पिकः ।
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श्वसम्पदा, आशिक सम्पदा से कौन मनुष्य वैभवसाली होता है 1 80. यदपाडगश्चित्रं सो भूत्कण्टकिताङगः ।
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अङगहीन व्यक्ति के द्वारा काटों का विस्तार करना सम्भव नहीं है । 81. अभ्यागतस्य विश्रान्तये सा छायेवोपकारिणी ।
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छाया अतिथि के विश्राम के लिए उपकारिणी थी ।
82. अहो दुरन्ता भवसभवावनिः ।
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वास्तव में जन्म से सहित यह पृथ्वी दुःख रूप परिणाम से सहित है। 83. तदावचेतुः परितः प्रवृत्तिः सखीषु सख्यं व्यसेनेऽनुवृत्तिः ।
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विपत्ति में साथ रहना ही मित्रता कहलाती है।