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________________ जो शुद्ध स्वभाव वाले होते हैं वे प्राण देकर भी कृतज्ञता का अत्यन्त निर्वाह करते हैं । 71. लोलुपानां तु कुतः प्रबुद्धिः लोभी जीवों को विवेक कहाँ होता है ? 16/48 72. नित्यं विभावमयदं । षविशोधनाय पडकेरूहस्य पुरतः शशिनीऽभ्युपायः । 20/10 अपने सदातन विरोध को दूर करने के लिए कमलों के आगे चन्द्रमा का ही उद्यम हो रहा हो । 73. सर्वस्वमूल्यमिति तुल्यतयानिजस्य कुर्याच्छितं लघुमपीह जनः प्रशस्यः । 20/15 उत्तम मनुष्य शरण में आये हुए साधारण मनुष्य को भी स्वयं अपने समान कर लेता है । 74. किं तत्र चाञ्चतु रुचिं चतुरस्य चेतः । 20/28 विचारशील मनुष्य का चित्त क्या रुचि कर हो सकता है अर्थात् नहीं ? 75. अर्केण बालामतिकर्कशेन किं मल्लिमालान्वयते कुशेन । 20/35 20/42 क्या अत्यन्त कठोर डाभ के द्वारा मालती की माला गूथी जाती है ? 76. मत्सी सरस्याश्रयिणी यदच्छया सा प्रेक्षते साम्प्रतमबुपृच्छया। मछली सरोवर में स्वेच्छानुसार चलती अवश्य है, पर वह पानी की आज्ञा से ही चलती है, उसका उल्लंघन कर नहीं चलती । 77. समश्चविषमः सूक्तिरित्येषास्ति न वारिता । कभी मित्र भी शत्रु हो जाते हैं । 21/82 78. भाले विशाले दुरितान्तकाले भवन्ति भावा रमिणां रमासु। पाप कर्म का अन्त अर्थात् पुण्य कर्म का उदय होने पर स्त्रियों के विषय में पुरुषों के अनुकूल भाव होते ही हैं । 79. विभवमयो रवसम्पदा पिकः । 20/52 291 22/4 श्वसम्पदा, आशिक सम्पदा से कौन मनुष्य वैभवसाली होता है 1 80. यदपाडगश्चित्रं सो भूत्कण्टकिताङगः । 22/38 अङगहीन व्यक्ति के द्वारा काटों का विस्तार करना सम्भव नहीं है । 81. अभ्यागतस्य विश्रान्तये सा छायेवोपकारिणी । 22/82 छाया अतिथि के विश्राम के लिए उपकारिणी थी । 82. अहो दुरन्ता भवसभवावनिः । 23/19 वास्तव में जन्म से सहित यह पृथ्वी दुःख रूप परिणाम से सहित है। 83. तदावचेतुः परितः प्रवृत्तिः सखीषु सख्यं व्यसेनेऽनुवृत्तिः । 23/21 विपत्ति में साथ रहना ही मित्रता कहलाती है।
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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