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________________ 27/52 28/82 97. सत्या त्वदुक्तिः शतपत्रनीतिर्गुणेषु नष्टेषु परेऽपि हीतिः। 26/81 ___ गुणों के नष्ट होने पर गुणी भी नष्ट हो जाता है। 98. प्रयोजनाधीनकवन्दनस्तु विलोकते क्वापि जन न वस्तु। __जो अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए आत्मा की वन्दना करता है, वह अपने प्रयोजन के अतिरिक्त कहीं भी किसी वस्तु को नहीं देखता है। 99. अडिगनः स्वतलसादभासिनी दीपिकेव जगते प्रकाशिनी। 27/62 संसारी मनुष्य की बुद्धि दीपक के समान यद्यपि जगत् को प्रकाशित करती __ है परन्तु अपने आपको प्रकाशित नहीं करता। 100. रमणी रमणीयत्व पतिर्जानाति नो पिता। स्त्री के सौन्दर्य को पति जानता है, पिता नहीं। 101. कथमप्यैमि गुर्वीकः शस्यसम्पत्करं खलम्। 28/94 खलिहान भूसा से धान्य को अलग कर देता है। 102. निराश्रया न शोभन्ते वनिता हि लता इव। स्त्रियाँ लताओं की तरह आश्रय विहीन होकर कभी सुशोभित नहीं हुआ करती है। 103. हीराधा हि कुतः प्रतिपाद्याििचन्तामणो लसाति पूते। 8/91 चिन्तामणि रत्न के प्राप्त हो जाने पर हीरा, पन्ना आदि का कोई प्रयोजन ही नहीं। 3/65 293) 38863.38233388888888888888888888888888888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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