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43. अहो मायाविना मा या मायातु सुख्तः स्फुटम्।
7/4 मायावियों की माया सरलता से साधारण लोगों की समझ में नहीं आती। 44. अहो धार्तस्य धूर्तत्वं धूर्तवज्जगजञ्चति।
धूर्त की धूर्तता धतूरे के समान दुनिया पर अपना प्रभाव जमाती है। 45. स्वातन्त्र्येण हि को रत्नं व्यक्त्वा काचं समेष्यति।
7/15 स्वतन्त्रतापूर्वक कौन रत्न छोड़ काँच ग्रहण करेगा। 46. मालाञ्चोपैमि बाहां हि नीतिविधोऽभिनन्दति।
नीतिमान् व्यक्ति अपनी भुजाओं का भरोसा करता है। 47. प्रमापणं जनः पश्येन्नीतिरेव गुरुः सतान् ।
7/47 नीति ही सबकी गुरु है। 48. द्विपेन्द्रो नु मृगेन्द्रस्य सुतेन तुलनामियात्।
हाथी यद्यपि औरों से बड़ा है फिर भी वह सिंह के बच्चे की बराबरी कर
सकता है। 49. नीतिरेव हि बलाद् बलीयसी
बल की अपेक्षा नीति ही बलवान् होती है। 50. स्थानं चकम्पेऽहिचरस्य तावद्भव्यस्य देवं लभते प्रभावः
भव्य पुरुषों का प्रभाव अनायास ही भाग्य को अनुकूल कर लेता है। 51. ददो यतश्चावसरेऽङगवत्ता निगद्यते सा सहकारिसत्ता।।
8/77 मोके पर हाथ बटाना ही सहकारीपन कहा जाता है। 52. स्वास्थ्यं लभतां चित्तं ह्यादायायोग्यमिह च किमु वित्तम्।
अयोग्य धन को पाकर क्या कभी चित्त स्वस्थ, प्रसन्न हो सकता है ? । 53. किमिह भवन्ति न तृणानि स्वयं जगति धान्यकणस्पुर्तेः।
इस जगत् में जमीन में धान के बीच छिटक देने पर वहाँ घास स्वयं नहीं
उगती। 54. उरसि सन्निहतापि पयो र्पयत्यथ निजाय तुजे सुरभिःस्वयम्। 9/12
दूध पीते समय बछड़ा गाय की छाती में चोट मारता है, फिर भी गाय
अप्रसन्न न होकर स्वयं उसे दूध ही पिलाती है। 55. यदिव कोकरुतेन दिनश्रियः समुदयः कृतनक्तलयक्रियः। .. 9/20
चकवे के विलाप से रात्रि चली जाती और दिन श्री का समुदय हो जाता
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56. कथमिवान्धकलोष्ठमपि क्रमः कनकमित्युपकल्पयितुं क्षमः।
अधक पाषाण को कोई सोने का कैसे बना सकता है ?
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