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________________ प्रथम परिशिष्ट जयोदय महाकाव्य में सुभाषित 1. किमन्यकैर्जीवितमेव यातु न याचितं मानि उपेति जातु समर्थवान मनुष्य अपना गौरव संभाले रखता है। भले ही जीवन समाप्त हो जाये वह कभी किसी से याचना करने नहीं जाता है । 1/72 2. अनुभवन्ति भवन्ति भवान्तकाः 1/94 अगणित गुण जो विश्व में व्याप्त है वे ही समादर पाते हैं और संसार का अत करते हैं। 3. धान्यमस्ति न विना तृणोत्करम् धान्य भूखे के बिना नहीं होता है | 2/3 4. तवदूषरट के किलाफले का प्रसक्तिरुदिता निरर्गले 2/4 औषधि के विना खुलजाने मात्र से दाद का रोग कैसे दूर हो सकता है अर्थात् कभी नहीं । 5. किन्नु काकगतमप्युपा श्रयत्यत्र हंसवदकुण्चिताश्रयः 2/9 क्या हंस की तरह कोई उदारचेता कभी कौए की भी चाल ग्रहण करता है अर्थात् कभी नहीं । 6. सम्मता हि महतां महान्वयाः । 7. प्रस्तरेषु मणयोऽपि हि क्वचित् । कहीं कहीं पाषाण में भी मूल्यवान रत्न मिल जाया करते हैं । 8. नेव लोकविपरीतमलिचतुं शुद्धमप्यनुमतिर्गृहीशितुः - 2/11 2/12 2/15 शुद्ध वात भी लोकविरुद्ध होने पर गृहस्थ लोग स्वीकार नहीं करते । 9. सर्वमेव सकलस्य नौषधम् । 2/17 सभी औषधियाँ सबके लिए उपयोगी नहीं होती । 10. वार्षिकं जलपीह निर्मलं कथ्यते किल जनै: सरोजलम् 2/33 वर्षा का निर्मल जल तालाब में एकत्र होने पर लोग उसे तालाब का जल ही कहते हैं । 11. अज्ञता हि जगतो विशोधने स्यादना त्मसदनावबोधने । 2/45 अपने घर की जानकारी न रखते हुए दुनिया को खोजना अज्ञता हो होगी। 12. योग्यतामनुचरेन्महामतिः कष्टकृद्भवति सर्वतो ह्यति । 2/51 समझदार को चाहिए कि वह योग्यता से काम ले, क्योंकि अति सर्वत्र दुखदायी ही होता है । 13. श्री प्रमाणपदवीं व्रजेन्मुदा वाग्विशुद्धिरुदितार्थशुद्धिदा । वचन की शुद्धि ही पदार्थ की शुद्धि की विधायक होती है । 286 2/52
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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