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________________ प्राप्त कर सकता है। नवीनता, रमणीयता तथा अनवद्य रसानुकूल पद, शययायुक्त ललितपदावली में श्रुतिमधुरता, संगीतात्मकता और लयात्मकता का सम्यक् विनियोग जयोदय महाकाव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। जयोदय का प्रयोजन आत्म कल्याण है। अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति कराना ही आचार्य ज्ञान सागर जी का अभिप्रेत है। यह महाकाव्य समाज का प्रशस्त दर्पण है। जिसमें मनुष्य अपने अवगुणों को समझकर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करें। इसमें समूचे जीवन का सार है। भूरामल जी ने जयोदय महाकाव्य का सृजन कर भारतीय संस्कृत साहित्य की समृद्धिशाली बनाया है। यह महाकाव्य काव्य एवनं साहित्य रुप उभय विषय से सम्पन्न है। यह सभी आबाल वृद्धों के पढ़ने योग्य है। आचार्य ज्ञानसागर जी असंख्य गुणों के सागर है। इनमें ज्ञान तप, संयम, शील आदि काव्यत्व के गुण भी भरे पड़े हैं। इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने अपने जयोदय महाकाव्य के साथ साथ अन्य काव्यों की गरिमा को बढ़ाया है। वास्तव में आचार्य जी उस प्रस्फुटित कमल की तरह है जिनकी यश रुपी सुगन्ध सारे संसार में व्याप्त है। इतने विशाल एवं गम्भीर महाकाव्य के विषय में इतना कहना पर्याप्त होगा कि यह कृति भावों की उदात्तता, भाषा की प्राजलता और शिल्प की अभिरामता के स्तरों पर दिवकालातीत है। कविप्रवर भर्तृहरि के समान महाकवि ज्ञान सागर जी का भी श्रृंगार वर्णन और शान्तरस वर्णन की परस्पर विरोधी स्थितियों पर असाधारण अधिकार है वे वस्तुतः लोकोत्तर महापुरुष है और उनका जयोदय महाकाव्य समस्त काव्योचित गुणों से युक्त आसाधारण महाकाव्य 28000000000000000000000233843200305505500 (2850
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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