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________________ दार्शनिक सम्प्रदायों के सिद्धआन्तों को उपस्थापित करके अनेकान्त के आलोक में उनकी समीक्षा कर जैन दर्शन की प्रतिष्ठा की है। कवि ज्ञान सागर जी का दार्शनिक वर्णन उनके गहन दार्शनिक ग्रन्थों के अध्ययन को द्योतित करने वाला है। जयोदय महाकाव्य में वर्णित दार्शनिक ज्ञान तत्वजिज्ञासुओं को सद्बोध एवं सत्य मार्ग की और अग्रसर करने में पूर्णतया सक्षम है। आचार्य भूरामलजी ने जयोदय महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थ चतुष्टय को गिनाते हुए अर्थ और काम पुरुषार्थ लौकिक सुख के लिए और जन्मान्तरीय आगामी सुख के लिए मोक्ष पुरुषार्थ तथा धर्म पुरुषार्थ को दोनों ही जगह आवश्यक माना है। इससे यह ज्ञात होता है कि आचार्य ने अकर्मण्यता, देव प्राबल्य के स्थान पर पुरुषार्थों को बुद्धि पूर्वक सिद्ध करने का अमर संदेश दिया है। इस महाकाव्य की कथा को आचार्य ने चर्तुवर्गनिसर्गवासा कहकर चारों पुरुषार्थों को देने वाली कहा है। आचार्य ज्ञानसागर जी ने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही पुरुषार्थों को जयोदय रुपी सागर में सम्यक संयोजना कर इस महनीय ग्रन्थ को सहृदय पाठकों के लिए परमोपादेय बना दिया है। यह जयोदय महाकाव्य उत्तम काव्य की कोटि में गणनीय है इसमें कोई सन्देह नहीं है। महाकवि ज्ञानसागरजी ने अपनी अनल्प कल्पना शक्ति से समुचित महाकाव्य को विलक्षण बना दिया है। इस महाकाव्य में वस्तु, अलंकार, रस इन तीनों प्रकार की ध्वनियों की अभिव्यंजना की गयी है। इस महाकाव्य में वाच्यातिशायी व्यंग्य के होने के कारण यह महाकाव्य उत्तम काव्य की कोटि में आता है। जैन दर्शन के सिद्धान्त जैसे अनेकान्तक, स्यादवाद, वस्तु की सरसरात्मकता समवाप का निराकरण आदि का चामत्कारिक काव्य की भाषा में गुम्फन करके श्री हर्ष जैसे दार्शनिक कवियों की श्रेणी में आ गये है। इस महाकाव्य का जितना अध्ययन किया जाये उतना कम है। प्रत्येक बार रमणीय अर्थकी प्रतीति यहाँ होती है। पं. भूरामलजी का शब्द भाण्डागार अक्षय है। उनकी अलंकार योजना रसानुसारिणी है। महाकाव्य काव्य कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। जयोदय महाकाव्य में कदम कमद पर नवीनता के दर्शन होते है। यह महाकाव्य कवि की कल्पनाओं का अनुपम भण्डार है। जयोदय महाकाव्य में अभिनव पदलालित्य योजना, शोभाकारक अलंकारों का सन्निवेश और शान्तरस की माधुरी रुपी त्रिवेणी प्रवाहित हुई है जिसमें अवगाहन करके मानव सही रुप में सद्यः परिनिवृतिः 388888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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