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________________ इन स्थलों पर महाकवि के पौराणिक ज्ञान लोकोत्तर वैदुष्य एवं गम्भीर चिन्तन का परिचय मिलता है। महाकवि भूरामल जी का वैदुष्य व्यापक था । उनकी सूक्तियाँ, नीति, राजनीति, लोक व्यवहार, धर्म दर्शन आदि के यर्थाथ एवं तलस्पर्शी ज्ञान से अनुस्युत हैं । उनमें कवि का गम्भीर पाण्डित्य झलकता है । उनका जयोदय महाकाव्य निस्सन्देह सुभाषित रतें का दैदीप्यमान भाण्डागार है । • महाकवि भूरामल जी अपने जयोदय महाकाव्य में अर्थ बाहुल्य की अभिव्यक्ति हेतु सभी अलंकारों का उपयोग करने में पूर्ण सफल हुए हैं । कवि की अनूठी कल्पना और द्विविध अर्थो को समेटने वाली प्रतिभा का मणिकांचनयोग हमें जयोदय महाकाव्य में पदे पदे दृष्टिगत होता है । जयोदय महाकव्य अर्थ की गम्भीरता पर निबद्ध होने के कारण कई स्थल प्रभावोत्पादकता से समवेत है। यह पाठकों के दिल और दिमाग पर प्रभाव डालने में पूर्णत: सफल रहा है । ये अर्थ गौरव का निर्वाह करने वाले श्रेष्ठ कवि हैं। इनकी महत्ता किसी भी बहुश्रुत कवि भारवि आदि से कम नहीं है। महाकवि भूरामलं जी ने अपने काव्य में शब्दों के द्वारा अभीष्ट अर्थ को द्योतना, कल्पना, सूक्ष्म विचारों का सुमधुर सम्मिश्रण किया है। उनका सम्पूर्ण महाकाव्य पूर्णतः समृद्ध है । जयोदय महाकाव्य में प्रकृति वर्णन में मानवीय संवेदना के अनेक स्थल हैं । प्रकृति के नाना रूपों की व्याख्या बहुत रोचक और हृदयहारी है । आचार्य ज्ञानसागर जी ने प्रथम, त्रयोदश, चर्तुदश, पंचदश, अष्टादश सर्गो में प्रकृति को उद्दीपन विभाव तथा कहीं कहीं स्वतन्त्र सहज रुप से चित्रित किया है । अष्टादश सर्ग में कवि ने प्रभात बेला का मनोरम चित्र अंकित किया है । यह सर्ग सम्पूर्ण काव्य में अपनी विशिष्ट रमणीयता और अर्थवत्ता के स्तर पर अनन्वय है। सूर्य चन्द्र का उदयास्त, वन पक्षियों का कलरव, सरोवर, नद, नदी, वापिका एवं उद्यान तथा बसन्त ऋतु आदि का स्वतन्त्र एवं सन्दर्भित चित्रण विशेष रुप से सहृदयजनों को आकृष्ट करता है। प्रकृति के मानवीय भावों के चित्रण से काव्य में दिव्य सजीवता का संचार हुआ है। पं. भूरामल जी ने जयोदय महाकाव्य में अपने व्याकरण वेशिष्टय को जिस प्रकार वैयंजनिक भाषा में व्यक्त किया है वह भी अपने में विलक्षण है । पं. भूरामल शास्त्री ने दार्शनिक और सदाचार सम्बन्धी तत्वों का निरुपण दर्शन की कर्कश शैली में नहीं किया है अपितु काव्य की मधुमय शैली में ही तत्व निरुपित है । जयोदय महाकाव्य में कवि का उद्देश्य दर्शन शास्त्र की गूढ़ और गहन बातों पर दृष्टि करना नहीं बल्कि जयकुमार एवं सुलोचना के कथा प्रसंगों के वर्णन में जीवन और जगत के रहस्यों का उदघाटन होने से विभिन्न 283
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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