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महाकाव्य में अङ्गी रस है । आठवें सर्ग में जहाँ जयकुमार और अर्ककीर्ति का युद्ध वर्णन है वहाँ वीर रस की छटा देखते ही बनती है तथा 14 वें से 17 वें सर्ग में श्रङ्गार का वर्णन है ।
कवि भूरामल जी ने कलापक्ष के साथ भाव पक्ष का भी अनुपम प्रयोग किया है। अनुप्रास और भिन्न विविध अलंकारं में भी पद्य रचना होते हुए भी ललित पद योजना द्वारा कवि पदलालित्य में प्रसिद्ध द्डी, माघ और हर्ष से भी आगे निकल गये हैं। नवीन रमणीय तथा अनवदय रसानुकूल पद शय्यायुक्त ललित पदावली में श्रुतिमधुरता, संगीतात्मकता और लयात्मकता का सम्यक् विनियोग जयोदय महाकाव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है ।
काव्य में केवल पदों की तुकबन्दी नहीं हैबल्कि कवि का अभिनव ललित पदसन्निवेश सहसा सहृदयों के हृदयों को आवर्जि कर लेता है । पश्चात् अर्थ प्रतीति के माध्यम से काव्य रस में डुबो देता है ।
जयोदय में अर्थगत चमत्कार की संयोजना हृदयावर्जक व आकर्षक है। अर्थगौरव के द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है । अर्थ गौरव का तात्पर्य है अल्प शब्दों में विपुल अथ4 का सन्निवेश कर देना । इसको हम गागर में सागर भरने वाली लोकोक्ति से उपमित कर सकते हैं । अर्थ गाम्भीर्य का तो यह जयोदय महाकाव्य ग्रन्थ अक्षय भंडार है । वास्तव में महाकवि भूरामल जी के बडे से बड़े अथ4 को थोड़े से शब्दो में प्रकट कर अपनी विलक्षण काव्य चातुरी दिखाई है। इस काव्यगत विशेषता के लिये उनकी जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम हैं ।
अल्प शब्दों द्वारा अधिक अर्थ की अभिव्यंजना काव्य में प्रायः दो प्रकार से की जा सकती है। एक तो श्लेष, समासोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग करके दूसरे जीवन के सत्य का उद्घाटन करने वाली नीतिविषयक किन्तु रसमयी सूक्तियों के रमणीय विनियोजन द्वारा ।
जयोदय महाकाव्य में भूरामल जी ने इन दोनों साधनों के द्वारा अथ4गम्भीर्य को सशक्त कर चमत्कार उत्पन्न किया है।
महाकवि का कवित्व उस समय अधिक चमत्कारी होता है जब वे जड़ से चेतन के व्यवहार का आरोप करते हैं । वहाँ समासोक्ति अलंकार का प्रसङग होता है 1
श्लेष और समासोक्ति के अथ4 सडकुल प्रयोदों से यह महाकाव्य भरा पड़ा है। कहने का तात्पर्य यह है कि महाकवि ने समासोक्ति श्लेष आदि के माध्यम से सास शैली में प्रस्तूयमान अर्थ गाम्भीर्य का सुष्ठु परिचय दिया है ।
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