SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिनिधि होता है उसके विचार सबके विचार होते हैं, इसलिए उसकी अनुभूति ललित पद कदम्बक रुप में सहृदय के हृदय में प्रविष्ट होकर जड चेतनात्मक जगत से उसका तादात्म्याध्यास करा देती है। यह तादात्म्याध्यास ही तन्मयीभाव है, जहाँ अपने पराये की भावना समाप्त हो जाती है औक सहृदय सामाजिक अपने अन्त:स्थित और चिन्दविशिष्ट रत्यादिभावों का आस्वादन करता है। यह आस्वादन ही काव्य की पराउपनिषद् है ऐसी अनुभूति कराने में सक्षम कवि ही रससिद्ध कवीश्वर कहा जाता है, जिसके द्वारा पूण्यवान् व्यक्ति ब्रह्मस्वाद सहोदर रस की अनुभूति करता है। जयोदय महाकाव्य में कला पक्ष अदभुत है और उसमें भी पदलालित्य समग्र महाकाव्य में परिव्याप्त है। कवि ने पदलालित्य योजना अनुप्रास, यमक, शब्द श्लेष, विरोधाभास आदि विविध अलडकारों के द्वारा की है। इन सब अलडकारों के माध्यम से अलडकारगत चमत्कार ने काव्य को प्रभावपूर्ण बना दिया है। जिस प्रकार कोई कमनीय कामिनी अपने विलासयुक्त पदनिक्षेप के द्वारा कामुकों के चित्त को बलात् चुरा लेती है, उसी प्रकार जयोदय महाकाव्य की अलंकारगत चमत्कार योजना युक्त कविता वनिता सहृदयों के हृदयों को बलात् आकृष्ट कर लेती है। कवि भूरामल जी ने एक शिल्पी के सदृश काव्य सौन्दर्य के लिए चुन-चुन कर ललित पदों के प्रयोग द्वारा अनिर्वचनीय लावणय राशि की सृष्टि की है। आचार्य ज्ञान सागर जी का पदलालित्य मात्र बाह्य सौन्दर्य तक सीमित नहीं बल्कि कविता के कोमल एवं गम्भीर हृदय पक्ष का भी मर्मस्पर्शी है तथा ध्वनि प्रदर्शन के साथ रसनिष्पत्ति में पूर्णतः समर्थ है। कवि की कविता नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा समुत्पन्न है मात्र अभ्यास जन्य नहीं। वे केवल कला प्रदर्शन तक ही सचेष्ट नहीं है बल्कि वे मानव के अन्तस तक रमने के लिए सचेष्ट है इसलिए आचार्य के पद लालित्य में श्रृङगारादि रसों के अनुकूल माधुर्य आदि गुणों और वेदी आदि रीतियों का सम्यक् सम्मिश्रण मिलता है। पटलालित्य यदि रसानुकूल हो तो अधिक चमत्कारक और हृदयस्पर्शी होता है अन्यथा वह कला प्रदर्शन मात्र होता है। जयोदय महाकाव्य रस ध्वनि से परिपूर्ण है। सामान्यतया श्रृंगारवीर, शान्त रस से भरपूर है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने परजहाँ श्रृंगार प्रमुख है वीर और शान्त गौण है और जहाँ वीर रस प्रमुख है वहाँ श्रृंगार और शान्त गौण है, परन्तु जब शान्त रस अपने पूर्ण वैभव और आन्तरिक्ता के साथ 28 वें सर्ग में आस्फालित होता है तो अन्य रस सर्वथा चुक ही जाते हैं। वह रस इस 300000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 0 0 3586%ssssss%83 806666664 0 8888888888638 2-08:0506 000000000 6 838369383888068333333333880000000028
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy