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________________ समवेत अंग है उसमें अन्तः स्फूर्ति रमणीयार्थ प्रतिपादकता। रमणीयता - प्रत्येक कार्य की उत्तम परिणति जो मानव मन को उन्नत एवं आहलादित कर दें उसमें अनुभव किया जा सकता है। सामान्यतः रमणीय शब्द का अर्थ सुन्दर, मनोरम एवं रसात्मक समझा जाता है, परन्तु शौर्य चारित्रिक गुणात्मकता, जनहित देश, सेवा, त्याग एवं मानवीय भावों से अलंकृत प्रवृत्ति में भी रमणीयता अन्त:स्यूत रहती ही है। मानव व्यक्तित्व में सरलता और गुणात्मक वृद्धि भरने वाला प्रत्येक अर्थ रमणीय है। अतः इसी व्यापक अर्थ के धरातल पर जयोदय महाकाव्य की समीक्षा की गयी है। महाकाव्य में लक्षण से लक्षित इस महाकाव्य का नायक हस्तिनापुर का क्षत्रिय नरेश जयकुमार है। अतः इसी धीरोदात्त नायक जयकुमार के जीवन चरित्र को ध्यान में रखते हुए इसका नाम जयोदय महाकाव्य रखा गया है। आचार्य ज्ञान सागर जी ने अपने संस्कृत काव्यों के नाम उदयान्त रखे है जिससे जयकुमार नायक का चरित्र अधिक ग्राहय एवं गौरव को प्रकट करने वाला है, तथा साथ ही जैन दर्शन के चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति का साधन है। . यह काव्य कृति भाव, भाषा, काव्य सौन्दर्य, रस परिपाक वर्णन, वैचिरुप, अलडकार-योजना, भावानुरुप छन्द विन्यास, शास्त्रीय ज्ञान आदि सभी दृष्टि से अनुपमेय है। वर्णनात्मक दृष्टि से इसमें सूर्योदय सन्ध्या, दिशाओं में अन्धकार ताराओं का छिटकना, चन्द्रोदय, प्रात:काल तथा चमत्कारिक ऋतु वर्णन आदि का महाकाव्य में वर्णन किया गया है, जो कवि की अलौकिक प्रतिभा को प्रदर्शित करता है। कवि का उद्देश्य केवल इतवृत्त का वर्णन मात्र नहीं है बल्कि वह अपनी सफल लेखनी से ऐसा तथ्य सहृदय सामाजिक के लिए प्रस्तुत करता है जिससे पाठक को विगलितवेद्यान्तरसम्पर्कशून्य अलौकिक आनन्द की अनुभूति हो सके। संसार की निःसारता और उदवेगजनकता को देखकर महाकवियों ने लोकोत्तर आनन्द की उपलब्धि चतुवर्गफल की प्राप्ति के लिए काव्यात्मिका सरस्वती सृष्टि का निर्माण किया। इसीलिये प्रभु सम्मित वैदादिशास्त्र तथा सुहृदयसम्मित पुराण - इतिहास की शब्दावली से विलक्षण सत्कवि की मंजुभाषिणी कामिनी की भाँति मानव मन को आहलादित करती हुई उसे अपूर्व एवं अलौकिक आनन्द की उपलब्धि कराती है। महाकवि भूरामल जी की वाणी द्वारा स्फूरायमाण दिव्य अलौकिक सरस काव्य रचना उनकी विलक्षण प्रतिभा को सूचित करती है। कवि जन
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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