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से काव्यगत गुणों को इस कृति में विकीर्ण किया है, वह समचमुच स्तुत्य है।
इस महाकाव्य ने जैन संस्कृत महाकाव्य की धारा को पुररुज्जीवित कर दिया। यह महाकाव्य महाकवि माघ, भारवि, और हर्ष की शैली से विशेषतः अनुप्राणित है। जयोदय महाकाव्य नेषधीयचरित महाकाव्य की शैली का नुकरण करता है जिसमें कवि ने नेषधकार हर्ष की भाँति ही प्रत्येक सर्ग के अन्त में परिचय दिया है -
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं वाणीभूषणवर्णिन घृतवरी देवी च यं धीचयम्।
तेनास्मिन्नुदिते जयोदयनयप्रोद्धारसारश्रितो -
नानानव्यनिवेदनातिशयवान् सर्गोऽयमादिर्गतः।। जयोदय महाकाव्य प्रतिभा के चमत्कारों से भरा पड़ा है। इसके कलापक्ष और भाव पक्ष दोनों ही सहृदयों को आहलादित करते हैं।
इस महाकाव्य में नव्यता के पदे - पदे दर्शन होते हैं। विशेषतः रसों, कल्पनाओं, अलंकारविन्यास, छन्दोयोजना एवं भाषा प्रयोग में पूर्वापेक्षया नूतन मार्ग अपनाया गया है।
श्री भागीरथप्रसाद त्रिपाठी वागीशशास्त्री के शब्दों में समष्टितः यह महाकाव्य इस शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ काव्यकला का निदर्शन है। प्राचीनता के साथ नवीनता का असाधारण समन्वय प्रस्तुत करता है। अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः इस उक्ति का निदर्शन एदंभुगीन किसी काव्य में देखना हो तो वह जयोदय महाकाव्यम्। यह अलंकारों की मंजूषा, चक्रबन्धों की वापिका, सूक्तियों और उपदेशों की सुरम्य वाटिका है। इसमें कवि के पांडित्य एवं वेदग्ध्य का अपूर्व सम्मिलन काव्य की उदात्तता का परिचायक है। काव्यक्षेत्र के अन्धकार - युग को गौरव प्रदान करने वाला यह गौरवमय महाकाव्य है। नवार्थ - घटना के लिए इसकी कहीं कहीं दुरूहता अस्वाभाविक नहीं है। प्रकृति निरीक्षण में हाकवि की सूक्ष्मेक्षिका शक्ति को उसकी कल्पना शक्ति ने पूर्णतः परिपुष्ट किया है। जयकुमार एवं सुलोचना के विषय में विरचित पूर्ववर्ती काव्यों की रत्नमाला में जयोदयमहाकाव्य अनर्थ्य मणि के रुप में देदीप्यमान हो रहा है।
महाकवि ज्ञानसागर जी की अनुपम कृति जयोदय महाकाव्य रस परिपाक, कथानक आस्फालन, भवविस्तार, कला सौष्ठव, भाषा संगठन, एवं उद्देश्यता, महनीयता के स्तर का अजात शत्रु है। इस अनुपम कृति में सर्वाधिक रमणीयता
1. जयोदयमहाकाव्य, 1/113